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________________ [ ३६२ ] __ साधु-धर्म निरूपण . - (२) पर्वत-(१) साधु पर्वत के समान अक्षीण मानसी लब्धि आदि रूप विविध औषधियों के धारक होते हैं (२) साधु पर्वतं के समान परीपह-उपसर्ग रूप वायु से कंपित नहीं होते (३) लाधु पर्वत के समान पशु-पक्षी, राजा-रंक श्रादि सभी के लिए श्राश्रय भूत होते हैं (४) साधु पर्वत के समान ज्ञान आदि सद्गुणों की सरिता का उद्गम स्थान होता है (५) साधु मेरू के समान उच्च गुणों के धारक होते हैं (६) साधु पर्वत के समान अनेक सद्गुण रूपी रत्नों के कर होते हैं (७) लाधु पर्वत के समान शिष्य-श्रावक आदि मेखला तथा शिखर आदि से शोभित होते है। (३) अग्नि-१) साधु अग्नि के समान, ज्ञान श्रादि ईधन से तृप्त न हो.(२) साधु अग्नि के समान तपस्तेज ले सहित हो (३) साधु श्रग्नि के समान कर्म रूपी कचरे को जलावे ४) साधु अग्नि के समान मिथ्यात्व रूपी अंधकार का विनाश करे (५) साधु अग्नि के समान भव्यजन रूपी सुवर्ण को उज्जवल करे (६) साधु अग्नि की तरह जीव रूपी धातु को कर्म रूपी मृत्तिका से पृथक करे (७) साधु अग्नि के समान श्रावक-श्राविका रूप कच्चे पात्र को पक्का वनावे । (४) समुद्र--(१) साधु समुद्र के समान गंभीर हो (२) गुण रूपी रत्नों का आगर हो (३) तीर्थकरों द्वारा बांधी हुई मर्यादा का उल्लंघन न करे (४) श्रौत्पातिकी श्रादि वुद्धि रूपी नदियों को अपने में समावेश करे (५) एकान्तवादी मिथ्यात्वी रूपी मच्छ-कच्छों द्वारा किये हुए क्षोभ से क्षुब्ध न हो (६) समुद्र के समान कमी छलके नहीं (७) समुद्र के समान निर्मल अन्तरग वाला हो। । (५) आकाश-(१) साधु का मन आकाश के भाँति सदा निर्मल हो (२) श्राकाश की तरह साधु किसी के आश्रय की अपेक्षा न रक्खे (३) श्राकाश की भाँति ज्ञान आदि समस्त गुणों का भाजन हो (४) श्राकाश के समान अपमान-निन्दा रूपी शीत-उष्ण से विकृत न हो (५) श्राकाश के समान वन्दना-प्रशंसा से प्रफुल्लित न हो (६) श्राकाश के समान साधु चारित्र आदि गुणों द्वारा छेद को प्राप्त न हो (७) आकाश के समान शनन्त गुणों का धारक हो। (६) तरु-(१] जैसे वृक्ष स्वयं सर्दी-गर्मी सहन करके अपने आश्रितों की रक्षा करता है उसी प्रकार साधु स्वयं कष्ट सहन करके पट्काय के जीवों की रक्षा करे । साधु वृक्ष के समान ज्ञान प्रादि रुपी फल प्रदान करे [३] वृक्ष के समान संसारी जीव रुपी पथिक को श्राश्रय दे [४] वृक्ष के लमान अपने को छेदन-भेदन करने वाले पर रुष्ट न हो।५] वृक्ष के समान पूजा करने वाले पर प्रसन्न न हो [६] वृक्ष के समान ज्ञान रुपी फलों का दान करके प्रत्युतकार की कामना न करे [७) घोर से घोर कष्ट श्रा पड़ने पर भी वृक्ष के समान अपना स्थान न बदले । (७) भ्रमर-(१) जैसे भ्रमर फूलों का रस लेते हुए फूल को कष्ट नहीं पहुंचाता, उसी प्रकार साधु आहार आदि लेने मे दाता को कष्ट न पहुंचाए (२) भ्रमर के समान, साधु गृहस्थ के घर रूप फूलों से श्रप्रतिवद्ध आहार आदि ग्रहण करे (३)
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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