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प्राप्ति होती है । इस प्रकार निरूपण करना तीसरी निर्वेदनी कथा है ।
(४) चतुर्थी निर्वेदनी कथा - पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्म आगामी भव में दुःख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्मों से जीव काक उलूक आदि के रूप में आगामी भव में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार परलोक( पूर्वभव) मैं किये हुए शुभ कर्म परलोक में ( आगामी भव में ) सुख रूप फल देते हैं । जैसे देवभववर्त्ती तीर्थकर का जीव अपने परलोक ( पूर्व भव ) में आचरण किये हुए शुभ कर्म का फल, परलोक ( अगले भव ) में भोगगा । इस प्रकार का कथन करना चौथी निवेदनी कथा है।
साधु-धर्म निरूपण
साधु को विकथाओं का सर्वथा परित्याग करके उक्त चार धर्म कथाओं द्वारा जिन शासन की प्रभावना करनी चाहिए ।
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(३) निरापवाद प्रभावना - यदि कहीं कोई पाखण्डी, किसी धर्मात्मा पुरुष को, कुमार्ग की ओर आकृष्ट करके उसे भ्रष्ट कर रहा हो अथवा सच्चे संतो की अवहेलना करके उनकी महिमा को कलंकित करने की चेष्टा कर रहा हो, तो वहां जाकर, अपने विशुद्ध एवं तेजस्वी चरित्र - बल के प्रभाव से, वहां के प्रधान पुरुषों के साहाय्य से अथवा अपनी विद्वत्ता के बल से, वाद-विवाद करके सत्य वस्तु स्वरूप को प्रकट करना । वीतराग के शासन का प्रकाश करना निरापवाद प्रभावना है।
(४) त्रिकालज्ञ प्रभावना - शास्त्रों में वर्णित भूगोल, खगोल आदि का ज्ञान प्राप्त करे । भूकम्प, वायुप्रयोग, दिक्षाराग, पशुवाद, पक्षीवाद, और ज्योतिष संबंधी शास्त्रों का ज्ञाता बने । लाभ - श्रलाभ, सुख-दुःख जीवन-मरण के प्रसंगों पर अपने आत्मा को तथा अन्य धर्मात्माओं को सावधान रक्खे, विघ्न से रक्षा करे । संघ, धर्म आदि पर आने वाली विपदा का पहले से ही ज्ञान प्राप्त कर अनुकूल उपायों की योजना करे यह प्रभावना का चौथा प्रकार है ।
(५) तपःप्रभावना - चतुर्विध आहार का परित्याग कर तेला, अठाई, मालक्षमण श्रादि तपस्या करके जिन शासन के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न करना तपः प्रभावना है ।
(६) व्रतप्रभावना -
-विषयों में आसक्त जीवों के लिए अपनी इच्छा का निरोध करना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। ऐसी अवस्था में, भोगोपभोग की विपुल सामग्री और पर्याप्त भोग-शक्ति विद्यमान होने पर भी जो इच्छा का दमन करते हैं, उनके प्रति लोगों को साश्चर्य श्रद्धा-भक्ति का भाव उद्भूत होता है । श्रतएव तरुणावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करना, विषयभोगों से विमुख रखना, विविध प्रकार के श्रभिग्रह धारण करना, इत्यादि व्रतों का अनुष्ठान करना और इससे धर्म की महिमा का विस्तार करना व्रत प्रभावना है
(७) विद्याप्रभावना - विविध प्रकार की विद्याओं का अध्ययन तथा साधन करके, उनके द्वारा जिन शासन का माहात्म्य प्रसारित करना विद्या प्रभावना है ।