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________________ नवां अध्याय . [ ३५३ ] भाष्यः-मुनियों के श्राचार का निरूपण करके अन्त में सामान्य रूप से प्राचार-पालन का उपदेश करते हुए अध्ययन का उपसंहार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जिस उत्कृष्ट भावना, वैराग्य और मुमुक्षुता के साथ दीक्षा ग्रहण की है, वही उत्तम भावना मुनि को सदा स्थिर रखनी चाहिए वैसा ही वैराग्य कायम रखना चाहिए । और तीर्थकर भगवान् ने मुनि के लिए जिन आवश्यक गुणों का निरूपण किया है उन गुणों का सदैव सेवन करना चाहिए । मन अत्यन्त चंचल है । वह सदैव एफ-सा नहीं रहता । जव कोई दुर्घटना होती है, हृदय को किसी प्रकार का आघात लगता है, इष्ट जन या धन आदि का 'वियोग होता है तब मनुष्य में एक प्रकार की विरक्ति भावना का आविर्भाव होता है। जन किसी महात्मा पुरुष के दर्शन होते हैं या उसके वैराग्य-परिपूर्ण प्रवचन को श्रवण करने का अवसर प्राप्त होता है तब संसार के भोगोपभोग नीरस से प्रतीत होने लगते हैं। मन उनले विमुख हो जाता है । किन्तु चिर-परिचित कामनाएं कुछ ही काल में पुनरुदभूत हो पाती हैं और वे उस विरक्ति को दवा देती हैं। जैसे सफेद वस्त्र पर काले रंग का दाग जल्दी लगता और दाग लगने पर सफेदी बिलकुल दब जाती है, उसी प्रकार स्वच्छ हृदय-पट पर कामनामों का धब्बा शीघ्र लग जाता है और वह स्वच्छता का समूल विनाश कर देता है।। इस प्रकार मनुष्य एक चार जिन वासनाओं को दबा लेने में समर्थ हो सका था, वही वासनाएं फिर प्रबल होकर उसे दबा देती हैं । वैराग्य का रंग उढ़ जाता है और मन कल्पना द्वारा निर्मित भोगों में निमस हो जाता है । धीरे-धीरे अधःपतन होता जाता है और अन्त में साधुता भी समाप्त हो जाती है। मन की चंचल गति से इस प्रकार के अनेक अनर्थ होते हैं । अतएव शास्त्रकार यहाँ सावधान करते हुए कहते हैं कि, मन को अपने अधीन बनाओ । सदा मन की चौकसी करते रहो । वह एक बार ऊंचा उठकर नीचा न गिरने पावे। मन क्रमशः ऊंचा ही उठता चला जाय तो शास्त्र में प्राचार्य अर्थात् तीर्थकर द्धारा उपदिष्ट गुणों का यथावत् पालन हो सकता है, अन्यथा नहीं। शंका-शास्त्र में पंच परमेष्ठी का प्ररूपण किया गया है। तीर्थकर भगवान जय धर्म का उपदेश देते हैं तब वे अर्हन्त पद में स्थित होते हैं । फिर यहां तीर्थकर को. आचार्य क्यों कहा है ? समाधान-जो मुनि स्वयं आचार का पालन करते हैं तथा दूसरों से करावे हैं, उन्हें श्राचार्य कहते हैं। कहा भी है दसणणाएपहाणे, वीरियचारित्तवर तवायारे । अप्पं परं च झुंजइ, सो पायरियो मुणी झयो । अर्थात् जो मुनि दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार तथा तएआचार में अपने को लगाते हैं और अन्य मुनियों को भी लगाते हैं, उन्हें प्राचार्य
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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