________________
नववां अध्याय
[ ३५२ ] (5) माल्य-फूलों की या मोती, पन्ना आदि की माला पहनना। (६) बीजन- पंखे से, पुढे से या वस्त्र आदि से हवा करना।
(१०) सन्निधि-घृत, तेल, शक्कर आदि पदार्थ रात्रि में अपने पास, दूसरे दिन के लिए रखना।
(११) गृहीपात्र-गृहस्थ के पात्र में श्राहार करना। (१२) राज पिण्डराजा के लिए बनाया हुश्रा पौष्टिक आहार लेना।
(१३) किमिच्छक दान-दानशाला आदि में बँटने वाला सदावर्त्त आदि लेना। अर्थात् जहां क्या चाहिए तुम्हें ? ' इस प्रकार पूछकर सर्वसाधारण भिनुकों को दान दिया जाता है, उस स्थान से दान लेना।
(१४) संबाहन-शरीर को आनन्द देने वाला तैल का मर्दन कराना । रोग निवारण के लिए तैल मर्दन कराना इलमें सम्मिलित नहीं है।
(१५) दन्तधावन-दांतों को चमकदार बनाने के लिए, मंजन, मिस्सी आदि का उपयोग करना।
(१६) संप्रश्न-असंयमी एवं गृहस्थ से साता पूछना ।
(१७) देहप्रलोकन--कांच में, तेल में या पानी आदि में अपना मुंह देखना, या शरीर देखना।
(१८) अष्टापद-जुआ खेलना । (१६) नालिक--चोपड़ श्रादि खेलना। (२०) छनधारण-सिर पर छत्र-छतरी लगाना ।
(२१) चिकित्सा-विना रोग के बल-वृद्धि के लिए औषध का सेवन करना चिकित्सा कराना।
(२२) उपाहन--जूते, स्खड़ाऊँ, मोजे श्रादि पैर में पहनना ।
(२३) ज्योतिरारम्भ-दीपक जलाना, चूला जलाना या अन्य प्रकार से अनि का आरंभ करना।
(२४) शय्यातर पिण्ड-जिसकी श्राज्ञा लेकर मकान में निवास किया हो उस के घर का श्राहार-पानी आदि लेना।
(२५) आसंदी-माचा, पलंग, कुर्सी आदि पर बैठना ।
(२६) गृहान्तर निषधा-रोग, तपश्चर्याजन्य निर्बलता एवं वृद्धावस्था आदि विशेष कारण के विना गृहस्थ के घर में बैठना।
(२७) गानमर्दन-शरीर पर पीठी श्रादि लगाना।
(२८) गृहिवैयावृत्य-गृहस्थ की सेवा करना या गृहस्थ से पाय चस्पी वगैः । रह सेवा कराना।
(२६) जात्याजीविका-सजातीय बनकर या अपने को सगोत्री कहकर श्राहार प्रादि प्राप्त करना।
। (३०) तप्तानिवृत-पूर्ण रूप से चित्त हुए बिना ही जल श्रादि का ग्रहण .. कर लेना।
.