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साधु-धर्म निरूपण इस प्रकार साम्यभाव का अवलंबन करके संयम का प्रतिपालन करने वाला साधु कृतार्थ होता है। . मूलः-न तस्स जाई व कुलं व त्ताणं, णरणत्थ विजाचरणं सुचिरणं । निक्खम्म से सेवइ गारेकम्मं,ण से पारए होई विमोयणाए १४. छाया-न तस्य जातिर्वा कुल वा त्राणं, नान्यत्र विध्या चरणे सुचीणे। .
निलम्य सः सेवतेऽगारिकर्म न सः पारगो भवति विमोचनाय ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-सम्यक् प्रकार से प्राप्त की हुई विद्या और आचरण के अतिरिक्त साधु का जाति या कुल उसके शरण नहीं होते । यदि साधु संसार के प्रपंच से निकल कर गृहस्थ के कर्मों का सेवन करता है तो वह संसार से पार नहीं हो सकता।
भाष्यः-सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से मुक्ति की प्राप्ति होती है, यह पहले बतलाया जा चुका है। जब कोई मुनि जिन दीक्षा अंगीकार करके गुरुजन की यथोचित विनय-भक्ति-शुश्रूषा आदि करके भलीभांति ज्ञान प्राप्त करलेता है, तब संसार से मुक्त होने के योग्य होता है। अतएव ज्ञान और चारित्र ही उसके लिए शरणभूत हैं-इन्हीं के अवलम्बन से निस्तार हो सकता है।
मातृपक्ष जाति कहलाता है और पितृपक्ष कुल कहलाता है । अथवा वर्ण को जाति कहा जाता है और उसकी अन्तर्गत शाखाएँ, जो किसी महापुरुष के नाम पर प्रायः प्रचलित होती हैं, कुल कहलाती है। जैसे क्षत्रिय जाति है और इक्ष्वाकु श्रादि कुल हैं।..
यहां सूत्रकार ने यह बताया है कि जाति और कूल किसी की रक्षा नहीं कर सकते । संसार के घोरतर कर्म-जन्म दुःखों का प्रतीकार जाति से नहीं हो सकता और न कुल से ही हो सकता है। कर्म अमोघ हैं । जिस पुरुष ने जिस प्रकार के शुभ या अशुभ कर्मों का उपार्जन किया है, उसे उसी प्रकार का फल अवश्यमेव योगना · पड़ेगा। मैं ब्राह्मण हूं' ऐसा समझने अथवा कहने से कर्म करुणा करके कम-फल नहीं देते और दूसरे को अधिक-फल नहीं देते। ब्राह्मण मर कर जब नरक में जाता है तो वहां उसे अन्य जीवों के समान ही दुःख सहन करने पड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि संसार में कहीं भी जाति के खेद से कर्म फल की भिन्नता नहीं दृष्टिगोचर होती। विष . खाने वाले.शद्र की जो दशा होती है वही ब्राह्मण की होती है। जिस प्रकार के प्राकृत या पुरुषार्थजन्य सुख-दुःख दूसरे को भोगने पड़ते हैं, उसी प्रकार के ब्राह्मण जातीय को भी सहने पड़ते हैं।
इसी प्रकार कुल भी रक्षक नहीं होता। जिस श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुआ विद्या- वान् और आचरणवान् महात्मा मोक्ष प्राप्त करता है, उसी कुल में उत्पन्न होने वाला
नरक का अतिथि बनता है। कर्म-फल में अन्य कुलों की अपेक्षा उस कुल में कोई विशेषता नहीं देखी जाती । अतएव यह स्पष्ट है कि कुल भी त्राणभूत नहीं है। उपा.