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________________ [ ३४२ ] . . साधु-धर्म निरूपण . (३) निमित्ते-गृहस्थ को निमित्त द्वारा लाभ-हानि वताकर आहार लेना। .. (४) श्राजीव-गृहस्थ को अपने कुल का अथवा अपनी जाति का वताकर आहार लेना। (५) वणीमग-मंगते की तरह दीनतापूर्ण बचन कहकर श्राहार लेना। (६) तिगिच्छे-ज्वर आदि की चिकित्सा बताकर आहार ग्रहण करना। . (७) कोह-गृहस्थ को डरा-धमका कर या शाप का भय दिखाकर आहार लेना। (८) माण–'मैं लब्धिमान हूँ, तुम्हें सरस आहार लाकर दूंगा' साधुओं से इस प्रकार कह कर आहार लाना। (8) माया-छल-कपट करके आहार लेना। (१०) लोभ-लोभ ले अधिक आहार लेना। (११) पुब्धिपच्छासंथव-आहार लेने से पूर्व या पश्चात देने वाले,की प्रशंसा.. करना। (१२) विज्जा-विद्या सिखाकर आहार लेना! (१३) मंत-मोहन आदि मंत्र लिखाकर आहार लेना। (१४) चुन्न--अदृश्य हो जाने का या मोहित करने का अंजन देकर या वताकर आहार लेना। (१५) जोग-राजवशीकरण आदि अथवा जल-स्थल मार्ग में समा जाने की सिद्धि वता कर आहार लेना। (१६) मूलकम्म-गर्भपात श्रादि की औषधि बताकर या पुत्र श्रादि के जन्म का दषण निवारण करने के लिए मघा, ज्येष्ठा आदि दुष्ट नक्षत्रों की शांति के निमित्त मूल स्तान बताकर श्राहार लेना। एषण सम्बन्धी दोष श्रावक और साधु-दोनों के निमित्त से लगते हैं। उनके दस भेद इस प्रकार हैं:-(१) संकिय (२) मक्खिय (३) निक्खित्त (४) पिहिय (५) साहरिय (६) दायंग (७) उम्मीले (८) अररिणय (६) लित्त तथा (१०) छड़िय। . किय-गृहस्थ को और साधु को आहार देते-लेते समय, 'यह श्राहार - सदोष है या निर्दोष ?' इस प्रकार की शंका होने पर भी पाहार देना-लेना। मक्खिय-हथेली की रेखाओं में अथवा वाल आदि में सचित्त जल लगा .. होने पर भी श्राहार देना-लेना। १३] निक्खित्त-सचित्त वस्तु के ऊपर रक्खा हुआ आहार देना-लेना। .. ..हापिहिय-सचित्त वस्तु से ढंके हुए आहार को देना और लेना। [५] साहरिय-सचित्त में से अचित्त निकाल कर आहार देना लेना। [६] दायग-अंधे लूले लंगड़े के हाथ से आहार देना या लेना। ७ि उम्मीसे-सचित्त एवं अचित्त करके मिश्र है उस अाहार का देना-लेना। अपरिणय-जिस वस्तु में शस्त्र परिणत न हुश्रा हो ऐसी वस्तु देना लेना।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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