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________________ andag [ ३४० ] साधु-धर्म निरूपण: आदि की हिंसा के बिना आहार तैयार नहीं होता । आहार के विना जीवन-निर्वाह असंभव है और जीवन के विना संयम का पालन संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में साधुओं का क्या कर्त्तव्य है ? वे लेश्यामात्र भी हिला नहीं कर सकते और संयम की साधना का भी त्याग नहीं कर सकते । तब उन्हें क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का यहां समाधान किया गया है । गृहस्थ अपने लिए भोजन निष्पन्न करते हैं । उस भोजन में प्रायः थोड़ा-बहुत उनके यहां बच रहता है । साधु को उसी बचे-खुचे भोजन पर निर्वाह करना चाहिए। इससे साधु को आरंभ भी नहीं करना पड़ता और उसकी जीविका का निर्वाह भी हो जाता है । ऐसा भोजन भी एक ही जगह से पूरा नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने ले गृहस्थ को शायद फिर आरंभ-समारंभ करके भोजन तैयार करना पड़े । इसलिए साधु के वास्ते शास्त्रों में भ्रमर-वृत्ति का विधान किया गया है । जैसे भ्रमर अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस चूसता है, उसी प्रकार साधु अनेक गृहस्थों के गृहों से थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। इससे गृहस्थ को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता और साधु का निर्वाह यथोचित रूप से हो जाता है । इस प्रकार नाना गृहों से भोजन ग्रहण करने में साधु को उद्वेग का अनुभव नहीं होता । वे उसे विपत्ति समझकर झुंझलाते नहीं है, किन्तु जीवन-निर्वाह का निरवद्य साधन समझकर उस वृत्ति को अपनाते हैं । यह श्राशय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'नानापिण्ड - रत' विशेषण दिया है । इससे यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि साधु नाना प्रकारके आहार में अनुरक्त होते हैं । इसका तात्पर्य यह है साधु नाना गृहों से भोजन की गवेष्णा करने में खेद अनुभव नहीं करते । अनेक गृहों से प्राप्त हुए निर्दोष भोजन में साधुओं को जरा भी लोलुपता नंदीं होती । कभी सरस और स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होने पर भी उसे समभाव से भोगते हैं और नीरस एवं निःखादु भोजन मिलने पर भी उसी प्रकार उसका उपभोग करते हैं। भोजन संबंधी राग-भाव या द्वेष-भाव उनके हृदय में कभी उदित नहीं होता है, क्यों कि वे दान्त हैं-दमन शील हैं । उन्होंने अपने मन पर तथा इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है । इन्द्रियों की उच्छृंखलता को दवा दिया है । वे इन्द्रियों के वशवत्तीं नहीं हैं इन्द्रियाँ उनकी दासी वन चुकी हैं । भोजन संबंधी समस्त दोषों का परिहार करके भिक्षा लेने वाले भिक्षु ही सच्चे श्रमण हैं । भोजन के ४७ दोष हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है: - १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादना दोप, १० एषणा दोष, और ५ मण्डल दोष । + $ उद्गम दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं । उनके नाम यह हैं - (१) श्राहाकम्म (२) उद्देलिय (३) पूइकम्मे ४) मीसजाए (५) ठवणे (६) पाहुडियाए (७) पात्रोअर (८) कीए (६) पामिच्चे (१०) परियहए (११) अभिहडे (१२) उभिने (१३) मालाइडे (१४) अच्छज्जे (१५) आणि सट्टे (१६) अज्कोपरए ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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