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________________ सातवां अध्याय [ २७७ ] महीने तक श्रमण का वेष धारण करना । तीन करण, तीन योग से सावद्य कार्य का त्याग करना | मस्तक तथा दाढ़ी के केशों का लुंचन करना, साधु के समान ही निर्दोष भिक्षा-वृत्ति करना । तात्पर्य यह है कि ग्यारहवीं पडिमा का धारी श्रावक प्रायः साधु के समान आचरण करता है । किन्तु वस्तुतः वह साधु नहीं है, क्योंकि वह यावज्जीवन यह अनुष्ठान नहीं करता । साधु होने का भ्रम दूसरों को न हो, इसलिए वह अपने रजोहरण की दंडी पर वस्त्र नहीं लपेटता, चोटी रखता है और धातु के पात्र रखता है । पडिमा सम्वन्धी पूर्ण विधि का अनुष्ठान करने के लिए उपवास करना अनिवार्य है । पहली पडिमा में एक दिन उपवास, एक दिन पारणा, दूसरी में दो दिन उपवास एक दिन पारणा, तीसरी में तीन दिन उपवास एक दिन पारणा, इसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते ग्यारहवीं पडिमा में ग्यारह दिन उपवास, एक दिन पारणा, फिर ग्यारह दिन का उपवास और एक दिन पारणा, करना होता है । समस्त पडिमाओं के अनुष्ठान में साढ़े पांच वर्ष व्यतीत हो जाते हैं । यह स्मरण रखना चाहिए कि अगली पडिमा का श्राचरण करते समय पिछली समस्त पडिमाओं की विधि ( उपवास के सिवाय ) का पालन अनिवार्य है । मूल :- खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं ममं ण केइ ॥ ५ ॥ छाया:- क्षमयामि सर्वान् जीवान्, सर्वे जीवा क्षमन्तु मे । मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न के नापि ॥ ५ ॥ शब्दार्थ : - मैं सब जीवों से क्षमाता हूँ - क्षमायाचना करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें । सर्व भूतों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है । भाष्यः - पूर्वोक्त समस्त श्राचार के पालन का उद्देश्य श्रात्मिक निर्मलता प्राप्त करना है । जो श्रावक इस आचार का पालन करता है उसमें इतनी सरलता और निर्मलता आ जाती है कि वह जगत् के प्रत्येक प्राणी पर - कीड़ी और कुंजर पर साम्यभाव धारण करता है । सब प्राणियों पर वह मैत्री भाव धारण करता है - सब को मित्र की भांति देखता है, किसी के साथ वैर की भावना नहीं रखता । ज्ञात रूप से अथवा अज्ञात रूप से किसी जीव के विरुद्ध कोई कार्य किया हो, प्रतिकूल वचन का उच्चारण किया हो अथवा किसी का बुरा चिन्तन किया हो तो वह उससे शुद्ध अन्त:करण से क्षमा की याचना करता है और अपनी ओर से सब को क्षमा का दिव्य दान देता है । तात्पर्य यह है कि जैसे कोई गृहस्थ, गृह में साँप का रहना सहन नहीं .कर सकता और जब तक साँप बाहर नहीं निकल जाता तब तक उसे शांति नहीं • मिलती उसी प्रकार किसी का अपराध करने पर सच्चा श्रावक, जब तक क्षमायाचना करके शुद्धि लाभ नहीं करता तब तक उसे शांति नहीं मिलती । एक चार
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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