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लातवां अध्याय
[ २७३ ] __. त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥
व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः।
श्रष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः, शृवानो धर्ममत्वहम् ॥ . 'अजीर्ण भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्स्यतः। अन्योन्याप्रतिवन्धेन त्रिवर्गमफि लाधयन् ॥ यथावदतिथौ साधो, दीने च प्रतिपत्तिंकृत् ।। सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥ . अदेशाकालयोश्चर्यो त्यजन् जानन् बलावलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां पूजकः पोष्यपोषकः ॥ दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः। सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृति कर्मठः ।। अन्तरङ्गारिषट्वर्ग-परिहारपरायणः ।. .
वशीकृतेन्द्रियम्मामो गृहिधर्माय कल्पते ॥ . अर्थात् स्वामीद्रोह, मित्र द्रोह, विश्वासघात, ठगी, चोरी आदि अन्याययुक्त उपायों से धन त कमाकर न्यायपूर्वक धन का उपार्जन करने वाला, शिष्ट पुरुषों के प्राचार की प्रशंसा करने वाला, कुल और शील में सामान अन्य गोत्र वालों के साथ विवाह संबंध करने वाला, पाप ले डरनेवाला, परम्परा से आगत देशाचार का प्राचरण करने वाला, किसी की और विशेष रूप से राजा श्रादि की निन्दा न करने वाला, बहुत प्रकट या बहुत गुप्त स्थान में न रहने वाला, बहुसंख्यक द्वारों वाले मकान में नरहने वाला, सदाचारी पुरुषों की संगति करने वाला, माता-पिता की भक्ति करने वाला, उपद्रवकारी नगर, ग्राम आदि स्थानों से दूर रहने वाला, धर्मविरुद्ध देशविरुद्ध कुलविरुद्ध कार्यों का त्यागी, श्रामदनी के अनुसार स्वर्च करने वाला, आर्थिक स्थिति, उम्र तथा देशकाल के अनुसार वेज पहनने वाला, बुद्धि के * पाठ गुणों से युक्त, प्रति दिन धर्मोपदेश सुनने वाला, अजीर्ण होने पर भोजन का त्याग करने वाला, उचित और नियत समय पर लोलुपता रहित होकर परिमित भोजन करने वाला, परस्पर में विरोध न करते हुए धर्म, अर्थ और काम रूप त्रिवर्गका सेवन करने वाला, अतिथि, लाधु और दीनहीन जलों का यथायोग्य आदर करने वाला, सदा प्रवेश से रहित,गुणों का पक्षपाती, देशविरुद्ध और कालविरुद्ध प्राचरण का त्यागी, अपनी शक्ति और अशक्ति का ज्ञाता, चारित्र में तथा ज्ञान में जो बड़े हो उनका श्रादर-सत्कार करने बाला, अपने आश्रित कुटुम्बीजन आदि का पालन करने वाला, आगे-पीछे का विचार करने वाला, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, जगत् का वल्लभ (प्रिय ), लज्जाशील, दयालु, सौम्य, परोपकारपराण, काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष रूप अन्तरंग शत्रों के त्याग में लगा रहने वाला और इन्द्रियों को वश में करने वाला, श्रावक गृहस्थ धर्म का अधिकारी होता है।
- (१) धर्म श्रवण करने की इच्छा (२) श्रवण (३) शास्त्र का अर्थ ग्रहण करना (४) धारणा (५) अहा (६) अपोह (७) अर्थविज्ञान और (८) तत्त्वज्ञान, यह.बुद्धि के आठ गुण हैं।