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सातवां अध्याय
[ २६७ 1 शेष का श्रागार रख सकता है, पर निरर्थक-निष्प्रयोजन पापों का तो त्याग करना ही चाहिए । निरर्थक पापों का त्याग करने ले आत्मा का बहुत कुछ कल्याण साधा जा सकता है।
गुणव्रतों के अतिचार दिशा परिमाणवत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१-३) ऊर्ध्व-अधःतिर्यक् दिशा परिमाण-अतिक्रम (४) क्षेत्रवृद्धि (५) स्मृति-अन्तर्धान (४) ..
(१-३) ऊर्ध्व-अधः-तिर्यक्दशा परिमाणातिक्रम-श्रर्थात् ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिरछी दिशा का जो परिमाण किया हो, उसे भूल कर या नशे आदि के वश होकर उल्लंघन करना । यह स्मरण रखना चाहिए कि भूल-चूक में परिमाण का उल्लंघन हो तभी अतिचार लगता है। उल्लंघन करने की बुद्धि से-जानबूझ कर उल्लंधन करने से व्रत सर्वथा खण्डित हो जाता है।
(४) क्षेत्रवृद्धि-व्रत ग्रहण करते समय जिस दिशा का जितना परिमाण किया हो उसमें वृद्धि कर लेना । जैसे-उत्तर दिशा और दक्षिण दिशा का सौ-सौ योजन का परिमाण किया। पश्चात् उत्तर में सवा सौ योजन जाने की आवश्यकता हुई तो दक्षिण दिशा के सौ योजन में ले पच्चीस योजन कम करके उत्तर दिशा का सवा सौ योजन परिमाण कर लेना अतिचार है। . (५) स्मृति-अन्तर्धान-किये हुए परिमाण का कारणवश विस्मरण हो जाय, जैसे मैंने दक्षिण दिशा में सौ योजन का परिमाण रक्खा है या सवा सौ योजन का? फिर भी सवा लौ योजन चला जाय तो अतिचार लगता है।
तात्पर्य यह है कि दिशा परिमाणवत राग-द्वेष और प्रारम्भ की न्यूनता के उद्देश्य से ग्रहण किया जाता है। परिमित दिशाओं से आगे प्रारम्भ का त्याग हो जाता है । जिस कार्य से व्रत का उद्देश्य अंशतः मलिन हो जाता है-ऐसा कार्य करने से व्रत दूषित होता है । श्रावक को अतिचारों से बचना चाहिए। - उपयोग-परिभोगव्रत के भोजन सम्बन्धी पांच अतिचार यह हैं
(१) लचिचाहार-भूल से-विना उपयोग के त्याग किये हुए सचित्त पदार्थ: का आहार करना।
(२) सचित्तप्रतिवद्धाहार-जो फलादि ऊपर से अचित्त हो किन्तु चीज होने के कारण भीतर से सचित्त हो, उसका असावधानी पूर्वक आहार करना । अथवा सचित्त वृक्ष से सम्बद्ध गोंद, पका हुआ फल आदि खाना । यह अतिचार भी उसी अवस्था में समझना चाहिए जब संचित्त भक्षण की बुद्धि नहीं हो । सचित्त-भक्षण की वुद्धि से सचित्त आहार करने पर अनाचार दोष लगता है। . .
... (३) अपक्काहार-जो वस्तु पूर्ण रूप से पकी न हो, अधकच्ची हो उसका अक्षण करना । जैसे तत्काल पीसी हुई चटनी, आधा कच्चा शाक, फल आदि। .