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________________ - - सातवां अध्याय . [ २६३ ] जीवन-निर्वाह कर सकेगा। अगर वालक अयोग्य हुआ तो संचित धन को एक दिन में समाप्त कर देगा। नीतीकार ने कहा भी है: .यदि पुत्रः सुपुत्रः स्यात् , सम्पदा के प्रयोजनम् ? यदि पुत्रः कुपुत्रः स्यात्, सम्पदा कि प्रयोजनम् ? अर्थात् पूत सपूत हुआ तो तुम्हारी संपत्ति से क्या प्रयोजन है ? वह स्वयं अपना निर्वाह कर लेगा। यदि कपूत हुआ तो संचित धन एक दिन में उड़ा डालेगा, फिर तुम्हारे संचय से क्या लाभ है ? संसार का प्रत्येक प्राणी अपने संचित शुभ या अशुभ कर्मों के अनुसार ही फल का भागी होता है । फिर भी मनुष्य यह सोचता है कि मैं उसका पालन-पोषण कर रहा हूँ--मैं उसे सुखी बना रहा हूँ। वास्तव में यह विचार मनुष्य का मिथ्या अभिमान है । इत्यादि विचार करके विवेकशील पुरुषों को, संक्लेश भावो न्यूनता के लिए धन के प्रति अति लोलुपता का त्याग करना चाहिए और एक नियत अवधि से श्रागे धन का परित्याग कर देना चाहिए । जो ऐसा करते हैं वही धन के स्वामी बन सकते हैं। जीवन-पर्यन्त धन के लिए व्यस्त रहने वाले, धन की आराधना के लिए जीवन के वास्तविक आनन्द को तिलांजलि देने वाले लोलुप लोग धन का कदापि सदुपयोग नहीं कर पाते । वे धन के स्वामी नहीं है, धन के दास हैं । धन उन्हें भोगता है, वे धन को नहीं भोगते । सर्वज्ञ भगवान् ने परिग्रह के दोष दर्शाकर उसके त्याग की महत्ता का निरूपण किया है । अतएव श्रावकों को निम्नलिखित परिग्रह की मर्यादा कर लेना चाहिए: (१) खेत, कूप, सरोवर, नहर, बाग-बगीचा, आदि की संख्या निर्धारित करके उससे अधिक का त्याग करना चाहिए। ___(२) महल, मकान, दुकान, पशुशाला, बंगला आदि इमारतों का परिमाण नियत करके अधिक का परित्याग करना चाहिए। (३) सोना, चांदी आदि और उनसे बनने वाले श्राभूषणों की मर्यादा कर लेना चाहिए, मर्यादा से अधिक की अभिलाषा नहीं करना चाहिए । (४) रुपया, पैसा, मोहर, नोट श्रादि सिको का तथा हीरा, मोती, माणिक, पन्ना, पुखराज आदि जवाहिरात का परिमाण नियत कर लेना चाहिए। . (५) गेहूँ, चांवल, चना, मूंग, ज्वार, बाजरी, मोठ आदि समस्त धान्यों के संग्रह की सीमा निश्चित् कर लेना चाहिए । फल, मेवा श्रादि की मर्यादा भी इसीमें समाविष्ट है। .. (६. दास-दासी, नौकर-चाकर आदि की मर्यादा करनी चाहिए, तथा रथ, गाड़ी आदि समस्त द्विपदों का परिमाण करना चाहिए। __(७) गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि चौपायों की मर्यादा बांध लेना चाहिए, और मर्यादा से अधिक कभी नहीं रखना चाहिए।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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