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सातवां अध्याय
। २६१ ] 'मैं चोरी करूं नहीं, इस प्रकार का व्रत लेने वाले श्रावक.का व्रत साक्षात चोरी करने से भंग हो जाता है। अतएव यहां अतिवार का स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिए । जैसे-कोई किसी से कहे-' इस समय आप वेकार हैं क्या ? अगर आप की चुराई हुई वस्तुएँ बेचने वाला दूसरा न हो तो मैं उन्हें बेच दूंगा।' इस प्रकार कहकर चोर को प्रेरणा करने वाले और अपनी बुद्धि से प्रेरणा का परित्याग करने चाले को एक देशभंग रूप अतिचार लगता है ।
(२) स्तेनाहृतादान-चोर के द्वारा चुराई हुई वस्तु को ग्रहण करना । व्रती श्रावक 'मैं व्यापार ही कर रहा हूं, चोरी नहीं' इस प्रकार विचार करके जब चोरी की वस्तु ग्रहण करता है तब उसे अतिचार लगता है । चोरी की बुद्धि से ग्रहण करने पर व्रत सर्वथा खंडित हो जाता है।
(३) विरुद्धराज्यातिक्रम-विरोधी राज्यों द्वारा सीमित की हुई भूमि का उल्लंघन करना अर्थात् दूसरे राजा के राज्य में प्रवेश करके व्यापार आदि करना । व्यापार बुद्धि से सीमा का अतिक्रमण करने पर यह अतिचार लगता है, चोरी की भावना. से मर्यादा का उल्लंघन किया जाय तो व्रत की सर्वथा विराधना होती है।
(४) प्रतिरूपक व्यवहार-अधिक मूल्य की वस्तु में अल्प मूल्यवान वस्तु मिलाकर अधिक मूल्य में बेचना प्रतिरूपक व्यवहार है।
(५) हीनाधिकमानोन्मान-तोलने के साधन मन, सेर, छटांक आदि तथा नापने के साधन गज, फुट, आदि छोटे-बड़े रखना । लेने के लिए बड़े-और देने के लिये छोटे रखना । व्यापारिक चातुर्य समझकर ऐसा करने वाले को अतिचार लगता है, चोरी की बुद्धि से करने पर अनाचार ही होता है ।।
(४) ब्रह्मचर्याणु व्रत-ब्रह्मचर्य के विषय में आगे विशेष निरूपण किया जायगा। मैथुन घोर हिंसा रूप है । उस से द्रव्य प्राणों का और भाव प्राणों का, घात होता है । अत्यन्त अशान्ति और संक्लेश का जनक है । शान्ति और समाधि की इच्छा रखने वालों को मैथुन का सर्वथा त्याग करके ब्रह्मचर्य की ही साधना करनी चाहिए । किन्तु जो इतने सामर्थ्यवान् नहीं हैं, उन्हें कम से कम पर स्त्री-सेवन का तो अवश्य ही त्याग करना चाहिए । इस प्रकार अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय संसारकी समस्त स्त्रियों को माता-बहिन आदि के समान समझना ब्रह्मचर्याणु व्रत कहलाता है । उसे स्वदार संतोष व्रत भी कहते हैं और पर स्त्री त्याग व्रत भी कहते हैं।
ब्रह्मचर्याणु व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१) इत्वरिकापरिगृहीता गमन (२) अपरिगृहीता गमन (३) अनंगक्रीड़ा (४) परविवाह करण (५) तीवकाम भोगाभिलाषा। .... (१) इत्वारिका परिगृहीता गमन-थोड़े समय के लिए अपनी बनाई हुई स्त्री से गमन करना । इससे ब्रह्मचर्याणु व्रत में दोष लगता है।