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सम्यक्त्व-निरूपण'
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जितने अंश में स्वात्मा में स्थित और परंपदार्थों से निरपेक्ष होता है उतने अंश में उसे पाप का बन्ध नहीं होता है। कहा भी हैयेनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य वन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥
अर्थात् जिस अंश से सम्यग्दर्शन है उस अंश से बन्धन नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बन्धन होता है ।
मूलः - इो विद्धंसमाणस्स, पुणेो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहा तहच्चाओ, तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥ १३ ॥
छाया:- इतो विध्वंसमानस्य पुनः संबोधिदुर्लभा ।
दुर्लभा तथा, ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ १३ ॥
शब्दार्थ:- यहाँ से मरने के अनन्तर पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होना प्रायः दुर्लभ हैं तथा धर्म रूप अर्थ का प्रकाश करने वाले मानव शरीर का मिलना भी कठिन हैं ।
भाष्यः – सम्यक्त्व नामक अध्ययन का उपसंहार करते हुए, अंत में यह बताया गया है कि जिन्हें सम्यक्त्व को प्राप्त करने का सद्भाग्य हो चुका है, उन्हें अत्यन्त सावधानी के साथ सम्यक्त्व की रक्षा करनी चाहिए । जब जड़ रूप पदार्थ भी संभाल कर रखे जाते हैं तब सम्यक्त्व जैसे अभीष्ट फल प्रदान करने वाले परमोत्तम चिन्तामणि रत्न की, लोकोत्तर आनन्द का अभ्यास कराने वाले साक्षात् कल्पवृक्ष की तथा भव-भव की तृषा शान्त करने वाला क्षीर प्रदान करने वाली दिव्य कामधेनु को अर्थात् सम्यक्त्व को सुरक्षित, स्वच्छ और निरतिचार बनाये रखना तो मानव प्राणी का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य है । मिथ्यात्व की और आकृष्ट करने वाले आकर्षण से बचना; आत्मा की अमोघ शक्ति पर श्रद्धा रखना, जीवन को पवित्र और श्रद्धामय बनाना इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ है । जो प्राणी पाप कर्म के उदय से, स्वार्थ, वासना या निर्बलता से सम्यक्त्वं का त्याग कर देते हैं मिध्यावियों का आडम्बर देखकर सन्मार्ग से फिसल जाते हैं, वे कई जीवन की कमाई को गँवा देते हैं और में मिथ्यात्व की अवस्था में मृत्यु प्राप्त करके नरक- निगोद आदि दुर्गतियों के अतिथि बनते हैं । उन्हें फिर लम्यक्त्व की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन हो जाता है, यहाँ तक कि मनुष्य-शरीर भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है.। अतएव सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए तथा उसकी विशुद्धि के लिए निरन्तर उद्यत रहना चाहिए। ऐसा करने से अन्त में एकान्त सुख की प्राप्ति होती है ।
अति
निर्ग्रन्थ- प्रवचन- छठा अध्याय "
समाप्तम्