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________________ छठा अंध्याय [ २४५ ] - शब्दार्थ:-सम्यक्त्व-रहित को ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना चारित्र के गुण नहीं होते । चारित्र रहित को मोक्ष नहीं प्राप्त होता और बिना मुक्त हुए निर्वाण प्राप्त नहीं होता। भाज्य:-यहां सस्यरदर्शन को निर्वाण का मूल कारण बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्रं के विना मुक्ति नहीं होती और मुक्ति के बिना निर्माण अवस्था प्राप्त नहीं होती। जैसे सम्यग्दर्शन के अभाव में होने वाली समस्त क्रियाएँ मिथ्या चारित्र हैं उसी प्रकार सस्यग्दर्शन के अभाव में समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान ही होता है । ज्ञान यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से उत्पन्न होता है किन्तु उसमें सस्यपन दर्शनमोहनीय के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से श्राता है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, उसकी आत्मा में रहे हुए मिथ्यात्व का संसर्ग पाकर मिथ्या बन जाता है । जय मिथ्यात्व का नाश होता है तब वही मिथ्याशानं सम्यज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। अतएवाजैसे सूर्य का उदय होने पर उसका प्रताप और प्रकाश एक साथ उत्पन्न होता है उसी प्रकार सस्यग्दर्शन का आविर्भाव होने पर सस्यग्झाने साथ ही प्रकट हो जाता है। इस प्रकार.यद्यपि दोनों सहभावी है, फिर भी उनमें कार्य-कारण भाव विद्यमान है। अतएव सम्यग्दर्शन के अभाव में यहां ज्ञान का जो अभाव बताया गया है सो सम्यरज्ञान ही समझना चाहिए । इसी तरह आगे भी 'ज्ञान' शब्द से सस्यग्ज्ञान का ही ग्रहण करना चाहिए। सम्यज्ञान के बिना सस्यक चारित्र नहीं होता। जब तक जीव 'श्रादि तत्वों का यथावत् ज्ञान न होजाय और सत्-असत् का विवेक जाग न उठे तबतक संयम श्रादि की साधना सम्यक् प्रकार से होना असंभव है । यह जीव है, यह अजीव है, इस प्रकार का ठीक बोध होने पर ही जीव की विराधना से कोई बच सकता है, अन्यथा नहीं। सम्यग्ज्ञान के होने पर ही सम्यक् चारित्र का सदभाव होता है और सस्य चारित्र की सत्ता होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है । क्रिया रहित शान और शान रहित क्रिया मात्र से मुक्ति नहीं प्राप्त होती, यह पहले कहा जा चुका है। जय चारित्र की परिपूर्णता होती है, तब समस्त कर्मों का सर्वधा और समूल धंस होता है। इस " अवस्था को मुक्ति कहा गया है। पाठकों का सर्वथा विध्वंस होने पर परमवीतराग श्रवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था को निर्वाण कहा गया है। यद्यपि मोक्ष और निर्वाण-दोनों समानार्थक शब्दों के रूप में प्रसिद्ध है, पर यहां सूक्ष्म दृष्टि से दोनों' को भिन्न माना गया है और दोनों में कार्य-कारण भाव की सिद्धि की गई है अर्थात् मोक्ष को कारण और निर्वाण को उसका कार्य माना गया है। कहा भी है-'कृत्स्मकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः।' अर्थात् समस्त कर्मों का प्रात्यनिक नाश हो जाना मोक्ष है । कर्म-नाश से आत्मा में एक अपूर्व, अनन्त शक्तियों से
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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