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इंद्या अध्याय ..
[ २३३ ] पर निर्भर है। अग्नि की उष्णता, हिम की शीतलता, वायु का ति चलना, गुरुत्व चाले पदार्थ का ऊपर से नीचे गिरना श्रादि-आदि न काल से होते हैं, न किसी पुरुप के प्रयत्न से ही । यह सव स्वभाव का खेल है । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव के कारण ही भिन्न-भिन्न रूपों में परिणत हो रहा है। स्वभाव के विरुद्ध कभी किसी पदार्थ का प्रयोग नहीं किया जा सकता। अतएव स्वभाव को ही कारण के रूप में स्वीकार करना चाहिए। '. इस प्रकार जो एकान्त रूप ले स्वभाव कारणवादी है, उन्हें सोचना चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ का स्वभाव तो लदेव विद्यमान रहता है, फिर क्या कारण है कि पदार्थ क्रम से नाना रूपों में परिणत होता? पदार्थ के जितने परिणमन होते हैं वे सय स्वभाव रूप कारण विद्यमान होने पर एक साथ क्यों नहीं होते ? उदाहरणार्थ-जीव यदि स्वभाव से ही मनुष्य होता है, स्वभाव से ही पशु-पक्षी आदि होता है, और स्वभाव से ही मुक्त होता है तो एक ही साथ मनुष्य, पशु-पक्षी और मुक्त श्रादि विभिन्न और विरोधी रूप क्यों नहीं धारण करता ? क्योंकि जीव जब मनुष्य है तर भी पशु-पक्षी श्रादि होने का स्वभाव उसमें विद्यमान है । यदि यह कहा जाय कि उस समय पशु रूप परिणत होने का स्वभाव नहीं है तो यह बतलाना होगा कि वह स्वभाव बाद में किस कारण से उत्पन्न हुअा है ? यदि स्वभाव से ही उत्पन्न हुश्रा तो पहले ही क्यों नहीं उत्पन्न हो गया ? इसके अतिरिक्त स्वभाव से स्वभाव की उत्पत्ति होना नहीं बन सकता, क्योंकि कोई भी पदार्थ अपने-श्रापको उत्पन्न नहीं कर सकता। ऐसा मानने से स्वभाव की अनित्यता भी सिद्ध होती है । अतएव एकान्त स्वभाववादी श्री युति-संगत नहीं है ।
(३) नियतिवाद-भवितव्यता या होनहार को नियति कंदते हैं। नियतिवादी का कथन है कि प्रत्येक कार्य भवितव्यता से ही होता है । जीव को जो सुख-दुःख्न प्रादि होते हैं वे काल, ईश्वर, स्वभाव या जीव के उद्योगले नहीं होते । जो लोग उद्योग से सुख-दुःख की उत्पत्ति होना मानते हैं उन्हें विचारना चाहिए कि उद्योग समान करने पर भी दो पुरुषों को समान फल क्यों नहीं मिलता ? स्वामी और सेवक में से सेक्क अधिक उद्योग करता है फिर भी फल की प्राप्ति सेवक को कम और स्वामी को अधिक होती है। इसीलिए किसी कवि ने कहा है
यदावि न तद्भाथि, भावि चेन्न तदन्यथा । अर्थात् जो होनहार नहीं है वह नहीं हो सकता और जो होनहार है यह बदल नहीं सकता।
पूर्वोक्त रीति से एकान्त नियतिवाद भी मिथ्या सिद्ध होता है। नियतिवादी भी होनहार के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बेटा नहीं रह सकता । भूख अगर मिटनहार है तो स्वयं मिट जायगी, भोजन पकानहार है तो स्वयं एक जायगा, इस प्रकार सा निश्चय करके उद्योग का त्याग करने वाला समानी एकान्त दुःन का पात्र बनेगा। एकान्त नियतिवाद अनुभव-विरुद्ध और युक्ति से भी प्रतिकूल है । समान उद्योग