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________________ [ २२६ ] सम्यक्त्व-निरूपणं है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं और गुरु आदि के उपदेश से उत्पन्न होने वाला .. सम्यग्दर्शन अधिजगम कहलाता है। जैले तीव्र वेग वाली नदी में बहने वाला पत्थर, अन्य पत्थरों से टकराताटकराता गोलमोल बन जाता है, उसी प्रकार ना-ना योनियों में भ्रमण करते-करते, अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक क्लेश सहन करते-करते कर्मों की कुछ निर्जरा होती है। उस निर्जरा के प्रभाव से जीव को पांच लब्धियों की प्राप्ति होती है-( १ ) क्षयोपशम लब्धि (२) विशुद्धि लब्धि ( ३ ) देशना लब्धि (४) प्रयोग लब्धि और (५) करण लब्धि । अनादिकाल से संसार में पर्यटन करते हुए कभी संयोगवश, ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों की अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को प्रति समय अनन्त-अनन्त गुना न्यून करना क्षयोपशम लब्धि है । जब क्षयोपशम लब्धि प्राप्त हो जाती है तो इसके प्रभाव से अशुभ कर्मों का अनुभाग मंद होने के कारण परिणामों में संक्लेश की हानि होती है शुभ प्रकृतियों के बंध का कारणभूत शुभ परिणाम उत्पन्न होता है। इसे विशुद्धि लब्धि कहते हैं। विशुद्धि लब्धि के प्रभाव से जिनेन्द्र भगवान् की वाणी सुनने की, साधु-संगति करने की इच्छा होती है । इसके फल स्वरूप जीव को तत्त्व का सामान्य ज्ञान हो जाता है। यह देशना लब्धि है। इस के पश्चात् जीव अपने परिणामों की विशुद्धता करता हुआ, श्रायु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति कुछ कम कोडाकोड़ी सागरोपम की करता है और घातिया तथा अघातिया कर्मों के रस को तीव्रतर से मंद करता है। यह प्रयोग लब्धि है । प्रयोग लब्धि के पश्चात् पांचवीं करण लब्धि होती है । इलमें तीन प्रकार के परिणाम होते हैं यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । करण आत्मा के परिणाम को कहते हैं । अनादिकालीन राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि भेदने के समीप पहुंच जाने वाला प्रात्मा का परिणाम यथाप्रवृत्तिकरण कहलाता है। यह करण अभव्य जीव को भी हो जाता है। इस परिणाम के पश्चात् अधिक विशुद्धतर परिणाम होता है वही अपूर्वकरण कहलाता है। इस परिणाम के द्वारा जीव राग-द्वेप की ग्रंथि को भेदने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और किसी-किसी प्राचार्य के मतं से ग्रंथि-भेद कर डालता है। ग्रंथि-भेद करने से आत्मा में पूर्व निर्मलता प्रकट होती है। उसके अनन्तर अनिवृत्तिकरण होता है। यह अत्यन्त विशुद्ध परिणाम है और इसकी प्राप्ति होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का और श्रात्मा की विशुद्धि का क्रम बतलाया जा चुका है। जब अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशय, क्षय या क्षमोपशम होता है तभी सम्यक्त्वं की प्राप्ति होती है। उक्त सातों प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न होना वाला' सम्यग्दर्शन श्रीपशमिक, सातों के क्षय से होने वाला क्षायिक कहलाता है। उदय को प्राप्त हुए मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय होने पर तथा अनुदित मिथ्यात्व का उपशम होने पर और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय होने पर उत्पन्न होने वाला सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक कहलाता है । इन तीनों
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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