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________________ निन्छ छवचन ॥ छठा अध्याय ॥ .......... सम्यक्त्व-निरूपण मूलः-अरिहंतो. महं देवो, जाव जीवाए सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं, इन सम्मत्तं मए गहियं ॥ १ ॥ छायाः-पहन्तो मम. देवाः, यावजीवं सुसाधवो गुरवः ।। जिनप्रज्ञप्तं तत्त्वं, इति 'सम्यक्व मया गृहीतम् ॥ १ ॥ शब्दाथैः-जीवन पर्यन्त अर्हन्त भरावान् मेरे देव हैं, सच्चे साधु मेरे गुरु हैं, जिन द्वारा प्ररूपित तत्त्व ही वास्तविक तत्त्व है, इस प्रकार का सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया। भाष्यः-गत पांचवें अध्याय में सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया गया है, किन्तु ज्ञान तभी सम्यम्ज्ञान होता है जब सस्यग्दर्शन की विद्यमानता होती है । विना सम्यग्दर्शन के समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। ज्ञान में सम्यक्पन लाने में सम्यग्दर्शन ही उपयोगी है। इसलिए ज्ञान के निरूपण के पश्चात् सम्यग्दर्शन का विवेचन किया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सम्यग्दर्शन की व्याख्या बतलाई गई है और उसे ग्रहण करने की भव्य जीव की प्रतिज्ञा का रूप भी प्रदर्शित किया गया है । सम्यग्दर्शन के यहां तीन अंग मुख्य बताये गये हैं। अन्यान्य विषयों का इन्हीं तीन में समावेश हो जाता है। तीन रूप इस प्रकार है (१) अर्हन मेरे देव हैं। (२) सच्चे साधु मेरे गुरु हैं। (३ ) जिन द्वारा निरूपित ही तत्व है। अईन् , अरिहंत और अरुहन्त पद एक ही अर्थ के वाचक हैं, यद्यपि. इनकी व्यत्पत्ति भाषा शास्त्र के अनुसार भिन्न-भिन्न है । लुरेन्द्र और नरेन्द्र श्रादिद्वारा पूजनीय होने से अईन् , राग-द्वेष श्रादि आत्मा के शत्रुयों को जीत लेने के कारण अरिहन्त, और कर्मों का प्रात्यन्तिक विनाश कर देने के कारण अरुहन्त कहलाते हैं। इस प्रकार व्युत्पतिजन्य अर्थ में पार्थक्य होने पर भी, यह तीनों शब्द आत्मा की जिस अवस्था के वाचक है, वह अवस्था एक ही है। जो आत्मा निरन्तर विशिष्ठ साधना-उपासना के द्वारा चार घातिया कर्मों का समूल विनाश करके सर्वज्ञ, सर्वदशी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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