________________
पांचवां अध्याय
। २२१ } सुख में फूलता नहीं है। दोनों अवस्थाओं में वह सम रहता है।
जीवन और मरण में भी सस्यज्ञानी पुरुष समता भाव का ही सेवन करता है। ज्ञानी की विचारणा इस प्रकार होती है-श्रात्मा अजर-अमर अविनश्वर है । जो वस्तु उत्पन्न होती है उसका नाश होता है । श्रात्मा की कमी उत्पत्ति नहीं होती, न कभी उसका विनाश होता है। द्रव्य प्राणों की संयोग अवस्था जीवन कहलाती है
और वियोग अवस्था मरण कहलाती है । इस प्रकार वाह्य वस्तु के संयोग और वियोग में अर्थात् जीवन और मरण में हर्ष-विषाद करने की क्या आवश्यकता है? पर पदार्थों का संयोग तो विनश्वर है ही। जब उन्हें कोई अज्ञानवश अपना मानता है तब उनके वियोग में विपाद का अनुभव होता है। परन्तु वास्तव में वे अपने नहीं है, अतएव उन्हें अपना समझना यही दुःख का कारण है। मरण में दुःख मानने का क्या कारण है ? जैसे कोई पुराने वस्त्र का परित्याग कर नूतन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार पुरातन तन का त्यागकर नूतन तन को धारण करना मृत्यु का प्रयोजन है। इस जन्म में श्राचरण किये हुए धर्मकृत्यों का फल मृत्यु की कृपा से प्राप्त होता है, अतएव मृत्यु का मित्र की भांति स्वागत करना चाहिए। ऐसा विचार कर ज्ञानी । पुरुष मृत्यु के प्रसंग पर दुःखी नहीं होते हैं। इसी प्रकार जीवन से वे प्रसन्नता अनुभव नहीं करते । यह जीवन, शरीर आदि पौगलिक पदार्थों पर आश्रित है। जो वस्तु पर पदार्थ पर अवलंबित हो, दूसरे के सहयोग से प्राप्त हो और जिसके भंग हो जाने की पल-पल पर संभावना बनी रहती हो, उसे पाकर प्रसन्नता क्यों होनी चाहिए ?. . . . . . . . . . :
निन्दा और प्रशंसा में भी ज्ञानी की चित्तवृत्ति सम रहती है । निन्दक व्यक्ति जय ज्ञानी की निन्दा करता है तब ज्ञानी विचारने लगता है-यह व्यक्ति मेरे अवगुणों को प्रकट कर रहा है. लो इसकी मुझपर बड़ी कृपा है । मुझमें अनगिनते दोए है और उनका मुझे ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता। यह पुरुप उन दोपों को प्रकाशित. कर रहा है । यह दोपान्वेषण में मेरी सहायता कर रहा है। मुझे इसका आभारी होना चाहिए । निन्दक जिन दुर्गुणों का मुझमें यारोप कर रहा है, चद्द दुर्गुण यदि मुझमें हैं तो यह सत्य-भापण करके उसे दूर करने की प्रेरणा करता है । कदाचित् वह दुर्गुण उसमें नहीं होता तो वह सोचता है-यह बेचारा निन्दक अपने श्रान्तरिक संताप से संतप्त होकर शान्ति प्राप्त करने के लिए मेरी निन्दा करता है । यह इतना अशानी है कि शान्ति-लाभ के लिए परिणाममें अशान्ति जनक कार्य करता है । अतएव यह शोध का पात्र नहीं है, किन्तु दया का पात्र है । निन्दा करके यह को का चंध कर रहा है तो मैं शोध करके कर्मों का बंध क्यों करूं? फिर मुझमें और उसमें भेद ही क्या रह जायगा? . . . अपनी प्रशंसा, स्तुति या कीर्ति लुगकर शानी प्रसन्न नहीं होता । यह सोचता ६-यह प्रशंसा मेरी नहीं है, ये भगवान् तीर्थकर द्वारा प्रमापित चारिन की हैं, क्योंकि उसका अनुसरण करने से ही प्रशंसा होती है। यदि मैं सम्यया चारित या पालन