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पाँचवां अध्याय
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श्रुत को अर्थ सहित सुने सुनकर उसे श्रवग्रह से ग्रहण करे ( ५ ) श्रवग्रहित करके ईहा से विचार करे (६) विचार करके अपनी बुद्धि से भी उत्प्रेक्षा करे (७) तदनन्तर उसकी धारणा करे अर्थात् श्रुत को चित्त में धारण कर रखे (=) अन्त में शास्त्र में निरूपित जो श्रेयस्कर अनुष्ठान है उसे व्यवहार में लावे |
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इस क्रम के साथ जो श्रुत का श्रवण किया जाता है वह शीघ्र ही फलदायक होता है । श्रविनय, श्रववधान या उपेक्षा के साथ श्रवण करने से श्रुतज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । श्रतएव प्रत्येक श्रोत्रा- शिष्य को इन विशेषताओं के साथ ही सिद्धान्त का श्रवण करना चाहिए ।
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दूसरे स्थल पर श्रोता के इक्कीस गुणों का उल्लेख भी मिलता है । वे गुण भी शिष्य वर्ग को ध्यान में रखने योग्य हैं, श्रतएव उनका यहाँ उल्लेख मात्र किया जाता है— श्रोता (१) धार्मिक रुचि वाला हो ( २ ) संसार से भयभीत हो (३) सुख का अभिलाषी हो (४) चुद्धिशाली हो (५) मननशील हो (६) धारणा शक्ति वाला हो ( ७ ) योपादेय का ज्ञाता हो (८) निश्चय व्यवहार का जानकार हो ( ३ ) विनीत हो (१०) डढ़ श्रद्धालु हो (११) अवसर कुशल हो (१२) निर्वितिमिच्छी-श्रवण के फल में सन्देह करने वाला न हो (१३) जिझासु हो - शास्त्र - श्रवण को भार न समझकर आन्तरिक उत्कंठा से तत्वज्ञान का अभिलाषी हो (१४) रस-ग्राही उत्सुकतापूर्वक श्रवण का लाभ उठाने वाला हो (१५) लौकिक सुख-भोग में अनासक्त हो । १६) परलोक के स्वर्ग यदि संबंधी सुखों की श्राकांक्षा न करे (१७ सुखदाता - गुरु- श्रध्यापक की सेवा करने वाला हो (१८) प्रसन्नकारी - गुरु को अपने व्यवहार से प्रसन्न करने वाला हो (१६) निर्णयकारी सुने हुए सिद्धान्त की आलोचना - प्रत्यालोचना करके अर्थ का निश्चय करे ( २० ) प्रकाश गृहीत श्रुतज्ञान को दूसरों के सामने प्रकट करे उसका व्याख्यान करे (२१) गुणग्राहक - गुणों का विशेषतः गुरु के गुणों का ग्राहक हो ।
श्रोता इन गुणों से युक्त होता है तो वह अपने गुरु के हृदय मैं शीघ्र ही अपना स्थान बना लेता है । वह उनका स्नेह सम्पादन करने में समर्थ होता है और गूद से गृढ़ ज्ञान की उपलब्धि करके विशिष्टं श्रुतज्ञानशाली बन जाता है । उसकी चुद्धि का विकास भी इनसे होता है । अतएव शिष्यों को सिद्धान्त श्रवण करने वालों को इन गुणों का सम्पादन करना तीच उपयोगी और कार्यसाधक हैं ।
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इन गुणों से सुसंस्कृत हृदये बना कर शास्त्र श्रवण करने वाले पाप का, त्रस का, और उभय का ज्ञान संपादन करते हैं। तत्पश्चात् श्रेयस्कर कार्य में प्रवृत्ति करके अनुत्तर आत्महित को प्राप्त करते हैं । अतएव सिद्धान्त श्रवण करना प्रत्येक का परम कर्त्तव्य है |
उभयंपि जाइ सोच्चा' इस वाक्य में ' उभयं ' पद से ऐसे व्यापार का ग्रहण किया गया है, जिससे पाप और पुण्य दोनों का बंध होता है । जिस व्यापार से एकान्त संवर और निर्जरा होती हैं वही साधुओं का कर्तव्य होता है | आवक उभयात्मक क्रिया भी करते है - जिससे अल्पतर पाए और बहुतर पुण्य की प्राप्ति