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ॐ नमः सिद्धेस्य *
निर्ग्रन्थ-मक्वन
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॥ पांचवां अध्याय ॥
ज्ञान-प्रकरण
श्री भगवान् उवाच --
मूलः- तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिणिवाहियं । हिनाणं च तयं, मणनाएं च केवलं ॥ १ ॥
छाया:-तन्त्रं पञ्चविधं ज्ञानं श्रुतमाभिनिबोधिकम् ॥
श्रवधिज्ञानं च तृतीयं, मनोज्ञानं च केवलम् ॥ १ ॥
शब्दार्थः- ज्ञान पांच प्रकार है- ( १ ) श्रुतज्ञान ( २ ) आभिनिबोधिकज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मन:पर्ययज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान ।
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. भाष्यः - चतुर्थ अध्याय में श्रात्म-शुद्धि के उपायों का निरूपण किया गया है । उन निरूपित उपायों की समझ और व्यवहार में लाना ज्ञान पर निर्भर है । सम्यग्ज्ञान के बिना आत्म-शुद्धि के उपाय यथावतन जाने जा सकते हैं और न उनका अनुष्ठान ही किया जा सकता है । अतः ज्ञान का निरूपण करना आवश्यक है । इस सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान की प्ररूपण इस पंचम अध्याय में किया जाता है ।
जिसके द्वारा पदार्थ का स्वरूप जाना जाता है उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञान आत्मा का अनुजीवी गुण है । वह जीव का श्रसाधारण धर्म है और प्रत्येक अवस्था में उस की सत्ता विद्यमान रहती है। ज्ञान मूलतः एक ही गुण है और वह ज्ञानावरण कर्मसे आच्छादित हो रहा है । परन्तु सूर्य बादलों से प्राच्छादित होने पर भी लोक मैं थोड़ा-बहुत प्रकाश अवश्य करता है, उसी प्रकार ज्ञान, ज्ञानावरण से आच्छादित होने पर भी थोड़ा-बहुत प्रकाश अवश्य करता है । हां, ज्ञानावरण कर्म का यदि प्रचलउदय होता है तो ज्ञान का प्रकाश कम होता है और यदि सूक्ष्म उदय होता है तो ज्ञान का प्रकाश अधिक होता है । जैसे सघनतर मेघपटल का श्रावरण होने से सूर्य कम प्रकाश करता है और विरत मेघ रूप आवरण होने से अधिक प्रकाश करता है । मेत्रों का सर्वथा अभाव होने से सूर्य अपने असली स्वरूप में उदित होता है और प्रर प्रकाश फैलाता है उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म का सर्वथा प्रभाव होने पर ज्ञान संपूर्ण रूपेण अभिव्यक्त होकर, जगत् के समस्त पदार्थों को अवभासित करने लगता है ।