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चतुर्थ अध्याय.. ....
[ १८१ ] अन्य योनिवाले जीवों की तरह अपनी-पायु पूर्ण होने पर मरते हैं, फिर उन्हें 'अमर' क्यों कहा गया है ? इस शंका का समाधान यह है कि देव, मनुष्यों और तिर्यञ्चों की भाँति मरते तो हैं किन्तु उनकी नाई अकाल मृत्यु से नहीं मरते । इसी अपेक्षा से. उन्हें 'अमर' कहा गया है। . . ... .. ...... !
जो जीव देवलोक में जाते हैं, उनकी मुक्ति का द्वार सदा के लिए बंद नहीं हो जाता। वे पुनः मनुष्य भव प्राप्त करके संयम आदि का विशिष्ट अनुष्ठान करके मुक्ति-लाभ कर सकते हैं । अत: यौवनकाल. में, जब शरीर बलिष्ठ और इन्द्रियाँ
समर्थ होती है, तभी संयम धर्म का आचरण करना चाहिए । कदाचित् अनुकूल • सामग्री न मिलने से ऐसा न हो सका हो और वृद्धावस्था प्रांगई हो तो भी हताश नहीं होना चाहिए और शक्ति के अनुसार धर्म का अनुष्टसरण करना चाहिए। जो शक्ति से परे हो उस पर प्रेम और श्रद्धान रखना चाहिए । क्यों कि धर्म पर श्रद्धान और प्रेम रखने वाला जीव भी-शनैः शनैः मुक्ति प्राप्त करता हैं। मूलः-तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं।
कम्मेहा संजम जोग संती, होम हुणामि इसिणं पसत्थं २३ छाया:-तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिःस्थानम्, योगाः सुच शरीरं करीपाङ्गम् ।
कमेधाः संयमयोगाः शान्तिः, होमं जुहोमि ऋपाणां प्रशस्तम् ।। २३ ॥ शब्दार्थः-जिसमें जीव आदि अग्नि का स्थान. (कुंड) है, तप अग्नि है, योग कुड़छी है, शरीर कंडे हैं, कर्म समिधा है, संयम रूप व्यापार शान्ति पाठ है ऐसा ऋपियों द्वारा प्रशंसनीय होम मैं करता हूँ।
भाष्यः-आत्म-शुद्धि के उपायों के दिग्दर्शन में सूत्रकार ने अग्निहोत्र, होम या यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप बताया है। भारतवर्ष में प्राचीनकाल में भगवान महावीर. के पूर्व और उनके समय में, वैदिक धर्म के अनुयायी यज्ञ किया करते थे । इन यज्ञों में . गाय, घोड़ा, आदि विभिन्न पशुओं की अग्नि में आहुति दी जाती थी। इतना ही नहीं, नरमेध यज्ञ भी उस समय प्रचलित था, जिसमें मनुष्य का बलिदान किया जाता था। यह यज्ञ अनेक उद्देश्यों को सन्मुख रखकर किये जाते थे। कोई यज्ञ.ऐश्वर्य वैभव की प्राप्ति के लिए किये जाते थे, कोई राज्य प्राप्ति के लिए, कोई पानी बरसाने के लिए, कोई देवता को प्रसन्न करने के लिए और कोई सद्गति की प्राप्ति के लिए । इस प्रकार लौकिक कामनाओं से प्रेरित होकर अनेक प्रकार के यज्ञ वैदिक धर्म के अनुयायी लोग करते थे। इसमें संदेह नहीं कि यह सब यश घोर हिंसाकारक थे और इनके द्वारा मानव-समाज. में एक प्रकार की नृशंसता, कठोरता अथवा निर्दयता ने अपना पासन जमा लिया था।
'श्राश्चर्य की घात तो यह थी कि इस भयानक हिंसा को चेद का समर्थन प्राप्त था। वेद में इन सब यज्ञों का विधान होने के कारण लोग हिंसा-जन्य इस पातक को पातक नहीं समझते थे, वरन धर्म समझकर करते थे । कोई भी पार यदि पाप .