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चतुर्थ अध्याय -
[ १७७ ]
शब्दार्थ:--मिट्टी के लेप से लिप्त तूम्बा भारी होकर पानी में नीचे चला जाता है, इसी प्रकार आस्रव द्वारा उपार्जित कर्मों से भारी हुए जीव अधोगति प्राप्त करते हैं--नीच योनि में उत्पन्न होते हैं। वही तूम्बा जब मिट्टी के लेप से छूट जाता है तो लघुता प्राप्त कर के जल के ऊपर आ ठहरता है, उसी प्रकार कर्मों से छुटकारा पाने पर जीव लघु होकर ऊपर-- लोक के अग्र भाग पर स्थित हो जाते हैं ।
भाष्यः -- श्रात्मा श्रधोगति और उच्चगति किस कारण से प्राप्त करता है, यह जाने बिना उच्च गति के लिए प्रयास नहीं किया जा सकता और इस प्रयास के बिना आत्मिक शुद्धि नहीं हो सकती, श्रतएव श्रात्म-शुद्धि के प्रकरण इसका उल्लेख किया. गया है ।
यहां आत्मा को तूं की उपमा दी गई है। आत्मा उपमेय है और तूंबा उपमान है । ऊर्ध्वगमन दोनों में समान धर्म पाया जाता है। तूंचा स्वभाव से हलका है, किन्तु मृत्तिका का लेप होने से वह भारी हो जाता है, इसी प्रकार जीव स्वभाव से हलका अतएव ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है, किन्तु कर्म रूपी मृत्तिका के संसर्ग से वह भारी हो रहा है । जब गुरुता - भारीपन का कारणभूत कर्म - संसर्ग हट जाता है तो जीव तूंबे के समान अपने मूल रूप में आकर ऊर्ध्वगमन करता है। तूंचा ऊर्ध्वगमन करके अपनी शक्यता के अनुसार जलकी ऊपरी सतह पर ही जाता है किन्तु आत्मा तूं बे की अपेक्षा अनन्त गुणा हलका होने के कारण लोक के अन्तिम प्रदेशों तक पहुंचता है । आगे धर्मास्तिकाय का - जो कि गति में सहायक है - प्रभाव होने के कारण आत्मा की गति नहीं होती । इसी कारण कर्म - त्रिमुक्त आत्मा को 'लोकाग्रप्रतिष्ठित ' कहा गया है ।
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इसके विपरीत जो जीव अपने अशुभ श्रध्यवसायों के कारण पाप कर्मों का उपार्जन करता है वह कर्मों के भार से गुरु होकर तूंवे के समान श्रधोगमन करता है नरक आदि नीच गति प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि जो श्रात्मा अपनी शुद्धि चाहता है उसे कर्मों के भार से हलका बनना चाहिए ।
श्री गौतम उवाच -
से कहं सए ?
कहं भुंजतो भासतो, पावं कम्मं न वंधई ? ॥२०॥
मूलः - कहं चरे कहं चिट्ठे कहं
छाया:- कथञ्चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासित कथं शयीत् ? कथं भुञ्जानो भाषभाखः पापं कर्म न बनाति ? ॥ २० ॥
शब्दार्थः - श्री गौतम स्वामी भगवान् से प्रश्न करते हैं किस प्रकार चलना चाहिए ? किस प्रकार ठहरना चाहिए ? किस प्रकार बैठना चाहिए ? किस प्रकार सोना चाहिए ? किस प्रकार भोजन करते हुए और किस प्रकार बोलते हुए पाप कर्म नहीं बंधते ?