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चतुर्थ अध्याय
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गुणस्थान में होता है तब उसके अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति वाले कर्मों की सत्ता होती है । यदि इस स्थिति का खंडन न हो और समस्त कर्म जितनी स्थिति वाले बंधे हैं उतनी ही स्थिति भोगनी पड़े तो मोक्ष का अभाव हो जायगा । फिर भी यहां केवल आयु कर्म का ही उपक्रम होना बतलाया गया है, उसके दो कारण हैं-प्रथम यह कि आयु कर्म का उपक्रम प्रासेद्ध है, दूसरा यह कि आयु कर्म का उपक्रम वाह्य कारणों से होता है, जब कि अन्य कर्मों का उपक्रम सिर्फ आन्तरिक अध्यवसाय के निमित्त से ही होता है।
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धीरे-धीरे दीर्घ काल में भोगने योग्य कर्म को शीघ्र भोग लिया जाता है, विना ओगे उसकी निर्जरा नहीं होती है, अतएव किये हुए कर्म का नाश ( कृत-नाश ) दोष यहां नहीं आ सकता । इतना विशेष समझना चाहिए कि समस्त कर्म प्रदेशोदय की अपेक्षा श्रवश्य भोगने पड़ते हैं, अनुभागोदय की अपेक्षा कोई कर्म भोगा जाता है, कोई नहीं भी भोगा जाता । श्रागम में कहा है:
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जं तं श्रणुभागकम्मं तं अत्थेोगइयं वेप, अत्थेोगइयं नो वेदइ, तत्थ गं जं तं पएसम्मं तं नियमा वेपइ ।"
अर्थात् अनुभाग कर्म को कोई भोगता है, कोई नहीं भोगता, पर प्रदेश कर्म को नियम से सब भोगते हैं ।
कर्म के उपक्रम के लिए साध्य रोग का दृष्टान्त दिया गया है । जैसे कोई साध्य रोग औषध आदि उपक्रम के बिना लम्बे समय में नष्ट होता है और औषध आदि उपक्रम से शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, और जो असाध्य रोग होता है वह सैंकड़ों औषधियों का सेवन करने से भी नष्ट नहीं होता है, इसी प्रकार कोई कर्म बन्ध के समय उपक्रम योग्य ही बँधता है । अगर उपक्रम का कारण न मिले तो वह अपनी बँधी हुई स्थिति पर्यन्त भोगे बिना नहीं छूटता और यदि उपक्रम की सामग्री मिल जाय तो अन्तर्मुहूर्त्त आदि अल्पकाल में ही प्रदेशोदय द्वारा मुक्त होकर नष्ट हो जाता है । परन्तु जो कर्म निकाचित रूप में बँधता है वह उपक्रम के अनेक कारण उपस्थित होने पर भी, जितने समय में भोगने योग्य होता है उससे पहले प्रायः नहीं भोगा जा
सकता ।
कर्म का उपक्रम सिद्ध करने करने के लिए निम्न लिखित उदाहरण उपयोगी - (१) जैसे फल वृक्ष की शाखा में लगा हो तो धीरे-धीरे यथा समय पकता है और जिस फल को तोड़ कर घास श्रादि से ढँक दिया जाता है वह काल में ही एक जाता है, इसी प्रकार कोई कर्म, चन्धकाल में पड़ी हुई स्थिति के अनुसार नियत समय पर भोगा जाता है और कोई कर्म श्रपवर्त्तना आदि करण के द्वारा अन्तर्मुह भी भोग लिया जाता है ।
(२) जैसे मार्ग बराबर होने पर भी किसी पथिक को गति की तीव्रता के कारण कम समय लगता हैं और किसी को गति की मंदता के कारण अधिक समय लगता है, इसी प्रकार कोई कर्म शीघ्र भांग लिया जाता है, कोई धीरे-धीरे भोगा जाता है ।