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________________ [ १७२ ] आत्म-शुद्धि के उपाय रखने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। ............. . विशुद्ध सम्यक्त्व का धारण करना, पूर्व प्रतिपादित विनय का पालन करना, प्रतिदिन नियमित रूप से, नियत समय पर शुद्ध भावों से प्रावश्यक क्रिया करना, सात शील और पांच व्रतों में अतिचार न लगाते हुए उनका पालन करना, प्रशस्त ध्यान में तत्पर होना, यथाशक्ति तप और त्याग (दान) करना, मुनियों की वैयावृत्य करना, और समाधि रखना भी तीर्थकरत्व की प्राप्ति का कारण हैं। ... नित्य नवीन ज्ञान का अर्जन करना: श्रत के प्रति आदर और भक्ति की भावना रखना, तपस्या ज्ञान वादविवाद आदि के द्वारा वीतराग भगवान् के उपदेश की प्रभावना करना अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् द्वारा जगत के कल्याण के लिए जिस धर्म का प्ररूपण किया गया है उसका महत्त्व सर्वसाधारण में चढ़ाना, उसके संबंध में जो अज्ञान फैला हुश्रा हो उसका निवारण करके जिनशासन का प्रभाव विस्तार करना,. इन कारणों से जीव को तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। ... __ संसार में जितने पदार्थ पुण्य के द्वारा प्राप्त होते हैं उन सब में तीर्थ कर पद सर्वश्रेष्ट है। इससे अधिक उत्कृष्ट अन्य कोई भी पुण्य का फल नहीं है इसी से यह जाना जा सकता है कि तीर्थकर पद की प्राप्ति के लिए कितने अधिक पुराय की अपेक्षा रहती है। यहां इस पद की प्राप्ति के जो कारण बताये गये हैं उनमें से किसी भी कारण से तीर्थकर पद प्राप्त हो सकता है, पर वह प्रगाढ़ और चरम सीमा को प्राप्त होना चाहिए । साधारण कारण से. तीर्थकर पद प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि जब असंख्यात जीव मुक्त होते हैं तब भी. तीर्थकर' चौवीस ही होते हैं। अतएव तीर्थकर पदवी पाने की अभिलाषा रखने वाले भव्य जीवों को विशिष्ट अतिशय विशिष्ट प्रयत्न करना चाहिए । ........ . .. . . . : मुक्त और तीर्थकर में इतना भेद हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करने वाला प्रत्येक आत्मा मुक्त कहलाता है परन्तु तीर्थकर भगवान् सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त करके श्रावक-श्राविका-साधु-साध्वी रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते हैं । जगत में तीर्थकर का धर्म-शासन चलता है । धर्मशासन की प्रवृत्ति करने के पश्चात् वे मुक्ति प्राप्त करते हैं । तीर्थकर, अतिशय पुण्य रूप तीर्थकर नाम-प्रकृति के उदय से होते हैं, प्रत्येक मुक्तात्मा को इस प्रकृति का उदय नहीं होता । एक-एक तीर्थकर के शासन में अगणित श्रात्मा सिद्धि-पद प्राप्त करते हैं । प्रत्येक तीर्थकर अवश्यमेव मुक्ति प्राप्त करते हैं पर प्रत्येक मुक्त तीर्थकर नहीं होते। . ..' वन्ध के प्रकरण में तीर्थकर नाम कर्म के बंध की सामग्री का उल्लेख किया जा चुका है। अतएव यहां उसका विस्तार नहीं किया जाता । जिज्ञासुओं को वह प्रकरण देख लेना चाहिए। मूल:-पाणाइवायमलियं, चोरिक्कं मेहुणं दवियमुच्छं। . ... कोहं माणं मायं, लोभं पेजं तहा दोसं ॥ १५ ॥ .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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