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चतुर्थ अध्याय
[ १६७ ) पूर्ण रूप से अन्त कर देते हैं घे सिद्ध पर्याय अर्थात विशुद्ध श्रात्म-परिणति प्राप्त करके सिद्धालय को प्राप्त करते हैं। कर्मों का सर्वथा विनाश होने पर श्रात्मा स्वभा. चतः ऊर्ध्वगमन करके लोकाकाश के अन्त में विराजमान हो जाता है । वही लोकान सिद्धालय कहलाता है। मूलः-भालोयणनिरवलावे, प्रावई सुदढधम्मया ।
अणिस्सिोवहाणेय, सिक्खा निप्पडिकम्मया ॥७॥ अण्णायया अलोमेय, तितिक्खा अजवे सुई। सम्मदिट्ठी समाहीय, आयारे विणोवए ॥ ८॥ धिई मई य संवेगे, पणिहि सुविहि संवरे । अत्तदोसोचसंहारे, सव्वकामविरत्तया ।। ६ ।। पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमादे लवालवे । माणसंवर जोगे य, उदये मारणंतिए ॥ १०॥ संगाणं य परिणणाया, पायच्छित्त करणेविय। श्राराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ११ ॥ छाया:-अालोचना निरपलापा, अापत्तोसुदृथधर्मता ।
अनिश्चितोपधानश्च, शिक्षा निःप्रतिकर्मता ॥ ७ ॥ अज्ञातता.अलोभश्च, तितिक्षा चार्जवः शुचिः।। सम्यग्दृष्टिः समाधिश्च, प्राचारो विनयोपेतः ॥ ८॥ धृतिः मतिश्च संवेगः, प्रणिधिः सुविधिः संवरः। , प्रारमदोपोपसंहारः, सर्वकाम विरता ॥६॥ . प्रत्यारल्यानं ध्युत्सर्गः, अप्रमादो लशालयः । ध्यान-संवर योगाश्च, उदये मारणान्तिके ॥ १०॥ सङ्गानान्च परिझाय; प्रायश्रित्तकरणमपि च । .
पाराधना च मरणान्ते, द्वात्रिशतिः योगसंग्रहा. ॥ ५॥ शब्दार्थः-बत्तीस योग-संग्रह इस प्रकार हैं-(१) आलोचना (२) निरपलाप (३) आपत्ति में भी धार्मिक दृढ़ता (४) अनिश्रतोपधान (५) शिक्षा (६) निःप्रतिकर्मता (७) अज्ञानता (5) अलोभ (E) तितिक्षा (१०) आर्जव (११) शुचिता (१२) सम्यग्दृष्टि (१३) समाधि (१४) आचार (१५) विनय (१६) धृति (१७) मति (१८) संवेग (१८) प्रणिधि (२०) संवर (२१) आत्मदोपोपसंहार (२२) सर्वकामविरक्ति (२३) प्रत्यारपान (२४)