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ॐ नमः सिद्धेभ्य
निर्ग्रन्थ-प्रवचन ॥ चतुर्थ अध्याय ||
आत्म शुद्धि के उपाय
श्री भगवानुवाच -
मूलः - जह परगा गम्मंति, जे परगा जा य वेयणा परए । सारीर माणसाईं, दुक्खाई तिरिक्खजोणी ॥ १ ॥
छाया:-यथा नरका गच्छन्ति ये नरका या च वेदना नरके ! शारीरमानसानि दुःखानि तिर्यकयोनौ ॥ १ ॥
शब्दार्थः—(श्रमण भगवान् महावीर इन्द्रभूति गौतम से कहते हैं ) जैसे नारकी जीव नरक में जाते हैं और वे नरक में वेदना सहन करते हैं । इसी प्रकार तिर्यञ्च यो में भी जीव शारीरिक और मानसिक वेदनाएँ सहते हैं ।
भाष्यः - तृतीय अध्याय में धर्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है । धर्म के अनुष्ठान के लिए प्रेरणा भी की गई है । धर्म के अनुष्ठान से ही आत्म-शुद्धि होती है । अतएव इस चतुर्थ अध्याय में आत्म- -शुद्धि के उपायों का विवेचन किया गया है ।
सांसारिक दुःखों का परिज्ञान होने पर ही, उससे बचने के लिए मनुष्य आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है । श्रतएव सर्वप्रथम दुःखों का दिग्दर्शन यहां कराया गया है । चतुर्गति रूप संसार में सर्वत्र दुःख का सद्भाव है । उसमें से यहां नरक गति और तिर्यञ्च गतिं के दुःखों का निर्देश किया गया है । संसारी जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक में घोर वेदनाएं सहन करते हैं । कदाचित् तिर्यञ्च गति में जाते हैं तो वहां भी अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने पड़ते हैं । वध, बन्धन, छेदन, भेदन, भूख, प्यास, भार-वंदन आदि की असंख्य वेदनाएँ तिर्यञ्च गति में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं । कुछ तिर्यञ्च ऐसे हैं जो शारीरिक वेदनाएँ ही सहन करते हैं क्योंकि वे असंज्ञी हैं - विना मनके हैं। संज्ञी जीव शारीरिक वेदनाओं के साथ मानसिक वेदनाएँ भी सहते हैं । इस प्रकार यह दोनों गतियां श्रत्यन्त दुःख रूप हैं | नरक गति का विस्तृत विवेचन आगे किया जायगा ।
मूल:- माणुस्सं च णिच्चं वाहिजरामरणवेयणापउरं । देवे देवलोए, देविड्ढि देव सोक्खाई ॥ २ ॥