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________________ - [ १५६ धर्म स्वरूप वर्णन ...: छायाः-जरा यावन्न पीडयति, व्याधिर्यावन्न वर्द्धते । ... यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ॥ ६॥ . . . . : शब्दार्थ:-जब तक वृद्धावस्था नहीं सताती, जब तक व्याधि नहीं बढ़त्ती और जब . तक इन्द्रियां शिथिल नहीं होती, तब तक धर्म का आचरण कर ले। ...... भाष्यः-पहले यह बताया गया था कि मिथ्यादृष्टिं धर्म का आचरण नहीं करते, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं और जो धर्म का आचरण करने में समर्थ हैं, वे भी प्रमाद में ऐसे तन्मय रहते हैं कि धर्माचरण की और उनका ध्यान नहीं जाता । वे सोचते हैं कि अभी जीवन वहुत लम्बा है। कुछ दिनों बाद ही धर्म का श्राचरण कर लेगे । उन्हें वोध देने के लिए सूत्रकार ने कहा है कि वृद्धावस्था-जन्य पीड़ा उत्पन्न होने से पहले ही धर्म का आचरण कर लो। वृद्धावस्था पाने पर अपने शरीर को संभालना ही कठिन हो जाता है। उस अवस्था में सम्यक् रूप से धर्म का आचरण होना कठिन है । इसके अतिरिक्त कौन कह सकता है कि वृद्धावस्था जीवन में आवंगी ही ? क्योंकि संसार में बहुत से बालक, युवा और प्रौढ़ व्यक्ति भी यमराज के.अतिथि बन जाते हैं । जव वृद्धावस्था का श्राना निश्चित नहीं है तब उसके. भरोसे बैठे रहना बुद्धिमत्ता नहीं है। .. कभी-कभी वृद्धावस्था श्राने से पूर्व ही व्याधि इतनी अधिक बढ़ जाती हैं कि जीवन भारभूत हो जाता है और इन्द्रियां भी किसी भी समय धोखा दे सकती हैं। इस प्रकार जीवन को वृथा बनाने वाले बहुसंख्यक विनों की विद्यमानता में कौन विवेकी व्यक्ति वृद्धावस्था के विश्वास पर बैठा रह सकता है ? कोई नहीं । अतएक भविष्य की अपेक्षा न रख कर शीघ्र ही धर्म को प्राचरण करना चाहिए। ____ . सूत्रकार ने यहां व्याधि के लिए बढ़ जाना कहा है, उत्पन्न, होना नहीं कहा। इसका आशय यह है कि व्याधि शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की सदा विद्यमान रहती हैं। वह नवीन उतान्न नहीं होती । जव वह अतिशय मंद. रूप में रहती है तब यह समझा जाता है कि व्याधि है ही नहीं और जब बढ़ जाती है तब उसका उत्पन्न होना कहा जाता है । परन्तु-वास्तव में व्याधि सदा विद्यमान रहती है। . अथवा जर शारीरिक वेदना रूप है और व्याधि शब्द यहां मानसिक वेदना के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। कहा भी है-- .. ___.. 'जे,णं जीवा सारीरं वेयणं वेदेति, तेसि. ए. जीवाणं जरा, जे णं जीवा 'माणसं वेयणं वेदेति तेसि ण जीवाण सांग .. .. भगवती सूत्र, श० १६, उ०२ अर्थात् जो जीव शारीरिक वेदना बेदते हैं उन जीवों को जरा होती है और जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं उन जीवों को शोक होता है। ___इस प्रकार व्याधि शब्द को मानसिक वेदना (शोक:) के अर्थ में लिया जाय तो गाथा का अर्थ यह होता है, कि जब तक शारीरिक और मानसिक वेदना नहीं बढ़ जाती और इन्द्रियां शिथिल नहीं पड़ती तव तक धर्म का प्राचरण: कर लेना चाहिए।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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