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तृतीय अध्याय .
[ १५१ ] मूलः-मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविति साहा।
... साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता,तो से पुष्पं च फलं रसोय ६ - छाया:-मूलात्कन्धप्रभवो द्रुमस्य, स्कन्धात् पश्चात् समुपयन्ति शाखाः। .. - शाखाप्रशाखाभ्यो विरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रसश्च ॥ ६॥
· शब्दार्थः-वृक्ष के मूल से स्कन्ध अर्थात तना उत्पन्न होता है, तदन्तर स्कंध से शाखाएं उत्पन्न होती हैं । शाखाओं और प्रशाखाओं से पत्ते उत्पन्न होते हैं। फिर उस वृक्ष में फूल लगते हैं, फल लगते हैं और फलों में रस उत्पन्न होता है ।
भाष्यः-आगे कहे जाने वाले दाष्ट्रान्तिक को सुगमता से समझने के लिए यहां पहले दृष्टान्त का प्रयोग किया गया है । तात्पर्य यह है कि जैसे मूल के विना स्कन्ध, स्कन्ध के बिना शाखाएँ, शाखाओं के बिना प्रशास्त्राएँ ( पतली डालियां टहनियां), शाखा-प्रशाखाओं के बिना पत्ते पत्तों के बिना पुष्प, पुष्पों के बिना फल और फलों के बिना रस नहीं उत्पन्न होता अर्थात यह सब क्रम से ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार नाग कहे जाने वाले विनय रूपी मूल के बिना हृदय में धर्म का उदय नहीं होता। - गाथा का अर्थ स्पष्ट है अतएव विशेष विवरण की आवश्यकता नहीं है। मूलः-एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो से मुक्खो। .
जेण कित्तिं सुनं सिग्घ, नीसेसं चाभिगच्छइ ॥७॥ - छाया:-एवं धर्मस्य विनयो मूलं, परमास्तस्य मोक्ष। ..
___ येन कीर्ति श्रुतं शीघ्र, निश्शेषं चाभिगच्छति ॥ ७ ॥ शब्दार्थः-इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है और धर्म का अन्तिम रस मोक्ष है । विनय से कीर्ति, तथा सम्पूर्ण श्रुत को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
भाष्यः-जैसे वृक्ष के मूल से स्कन्ध श्रादि क्रम से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार विनय से श्रुत आदि की प्राप्ति होती है। वृक्ष का अस्तित्व जैसे मूल पर अवलम्बित है उसी प्रकार धर्म विनय पर अवलम्बित है। विना मूल के वृक्ष क्षण भर भी नहीं टिक सकता, इसी प्रकार विना विनय के धर्म क्षणं भर नहीं टिक सकता । अतएव धर्म को यहां विनय-मूलक कहा गया है । वृक्ष के मूल से स्कन्ध, शाखा आदि क्रमपूर्वक अन्त में रस का उदय होना बतलाया गया है उसी प्रकार विनय से ध्रुत श्रादि की प्राप्ति होते-होते क्रमशः मोक्ष रूपी परम-चरम-रस-मोक्ष की प्राप्ति होती है। .
विनय का जैनागम में बहुत विस्तृत अर्थ प्रतिपादन किया गया है। विनय का अर्थ सिर्फ नम्रता ही नहीं है, किन्तु सम्पूर्ण श्राचार-विचार का विनय में समावेश होता है । 'संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगाररस मिक्खुणो, विणयं पाउ करिस्लामि आणुपुचि सुणेह मे।' यहां साधु के श्राचार को विनय शब्द से ही निरूपण किया है। नम्रता के अर्थ में भी विनय शब्द का प्रयोग किया गया है, क्योंकि नम्रता प्रद