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निर्ग्रन्थ प्रवचन-माहात्म्य
किंपाक फल बाहरी रंग-रूप से चाहे जितना सुन्दर और मनोमोहक दिखलाई पड़ता हो परन्तु उसका सेवन परिणाम में दारुण दुःखों का कारण होता है । संसार की भी यही दशा है । संसार के भोगोपभोग आमोद-प्रमोद, हमारे मन को हरण कर लेते हैं। एक दरिद्र, यदि पुण्योदय से कुछ लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है तो मानों वह कृतकृत्य हो जाता है। संतान की कामना करने वाले को यदि संतान प्राप्ति हो गई तो, वल वह निहाल हो गया। जो अदूरदशी हैं, बहिरात्मा हैं, उन्हें यह सब सांसारिक पदार्थ मूढ़ बना देते हैं। कंचन और कामिनी की माया उसके दोनों नेत्रों पर अज्ञान का ऐसा पर्दा डाल देती हैं कि उसे इनके अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। यह माया मनुष्य के मन पर मदिरा का सा किन्तु मदिरा की अपेक्षा अधिक स्थायी प्रभाव डालती है। वह वेभान हो जाता है। ऐसी दशा में वह जीवन के लिए मृत्यु का
आलिंगन करता है, अमर बनने के लिए ज़हर का पान करता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा से भयंकर दुःखों के जाल की रचना करता है । मगर उसे जान पड़ता है, मानों वह दुःखों से दूर होता जाता है।
अन्त में एक ठोकर लगती है। जिसके लिए मरे पचे खून का पसीना बनाया, वही लक्ष्मी लात मार कर अलग जा खड़ी होती है। जिस संतान के सौभाग्य का उपभोग करके फूले न समाते थे, आज वही संतान हृदय के मर्म स्थान पर हजारों चोटें मार कर न जाने किस ओर चल देती है । वियोग का वज्र ममता के शैल-शिखर को कभी-कभी चूर्ण-विचूर्ण कर डालता है। ऐसे समय में यदि पुण्योदय हुश्रा तो अांखों का पर्दा दूर हो जाता है और जगत् का वास्तविक स्वरूप एक वीभत्स नाटक की तरह नजर आने लगता है । वह देखता है-श्राह ! कैसी भीषण अवस्था है । संसार के प्राणी मृग मरीचिका के पीछे दौड़ रहे हैं. हाथ कुछ पाता नहीं। "अर्थान सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा" मिथ्या आकांक्षाएँ पीछा नहीं छोड़ती और श्राकांक्षाओं के अनुकूल अर्थ की कभी प्राप्ति नहीं होती। यहां दुःखो का क्या ठिकाना है ? प्रातःकाल जो राजसिंहासन पर आसीन थे, दोपहर होते ही वे दर-दर के भिखारी देखे जाते हैं। जहां अभी रंग रेलियां उड़ रही थीं वहीं क्षण भर में हाय हाय की चीत्कार हृदय को चीर डालती है। ठीक ही कहा है-"काहू घर पुत्र जाया काहू के वियोग आयो, काहू राग रंग काहु रोश्रा रोई परी है।"
गर्भधास की विकट वेदना, व्याधियों की धमा चौकड़ी, जरा-मरण की व्यथाएँ नरक और तिर्यंच गति के अपरम्पार दुख !! सारा संसार मानों एक विशाल भट्टी है और प्रत्येक संसारी जीव उसमें कोयले की नाई जल रहा है !.
वास्तव में संसार का यही सच्चा स्वरूप हैं। मनुष्य जब अपने अान्तरिक नेत्रों से संसार को इस अवस्था में देख पाता है तो उसके अन्तःकरण में एक अपूर्व