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द्वितीय अध्याय
[ १२३ ]
चरण का फल भोगने का अवसर देती है । अतः धर्मात्मा जीव मृत्यु के समय भी निराकुल रहता है, जब कि वर्त्तमान भव को ही सब कुछ समझने वाला जीव मृत्युकाल उपस्थित होने पर व्याकुल, क्षुब्ध और संक्लेश परिणाम से युक्त हो जता है ।
ऊपर के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्माचरण करने वाला व्यक्ति मृत्यु के समय भी शान्त रहता है और मृत्यु के पश्चात् परलोक से भी उसे अनुपम शान्ति और सुख की प्राप्ति होती है । श्रतएव विवेकशील पुरुष वर्त्तमान को ही सब कुछ मान कर श्रीचरण नहीं करता, बल्कि वह भविष्य काल का खयाल रखता है और प्रत्येक क्रिया करते समय इस बात को सोच लेता है कि-'मेरी सुदीर्घ संसारयात्रा में यह जीवन एक छोटा-सा पड़ाव है— मात्र चिड़िया रैन बसेरा है । एक 'नवीन प्रभात शीघ्र ही उदय होगा और उसके उदय के साथ ही मेरी यात्रा फिर 'श्रारम्भ हो जायगी ।' ऐसा सोच कर वह अगली यात्रा का सामान तैयार करता है ।
तात्पर्य यह हैं कि संसार के सभी पदार्थ यहीं रह जाते हैं, सिर्फ किये हुए कर्म साथ जाते हैं । कर्म बिना भोगे जीव का पिंड नहीं छोड़ते । कहा भी है: -
आकाशमुत्यततु गच्छतु वा दिगन्त, सम्मोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेच्छ । जन्मान्तरार्जित शुभाशुभकृन्नराणां छायेव न त्यजति कर्म-फलानुबन्धः ॥
अर्थात:- जीव चाहे आकाश में चला जाए, चाहे दिशाओं के अन्त में चला जाए, चाहे वह समुद्र के तल में छिप जाए चाहे और किसी सुरक्षित स्थान में चला जाए, परन्तु पूर्व जन्म में उपार्जन किये हुए शुभ - अशुभ कर्म परछाई की नाई उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं । कर्मों का फल भोगे बिना कोई किसी भी अवस्था में छुटकारा नहीं पा सकते हैं । अतएव कर्मों का उपार्जन करते समय यह भी सोच लेना चाहिये कि इस कर्म का फल मुझे किस रूप में भुगतना पड़ेगा ! जो बुद्धिमान् पुरुष अपनी अपनी प्रत्येक क्रिया के फल का विचार पहले कर लेते हैं वे अनेक पापों से चच जाते हैं ।
मूलः - जहा य चंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य । एमवे मोहाययणं खुतराहा, मोहं च तरहाययणं वयंती ॥२६॥
छाया:-यथा च श्रण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवमेव मोहापतनं खलु तृष्णा, मोहं च वृष्णायतनं वदन्ति ॥ २६ ॥
शब्दार्थः — जैसे अण्डे से बगुली उत्पन्न होती है और बगुली से अंडा उत्पन्न होता है उसी प्रकार मोह से तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है ।
भाष्यः- सामान्य रूप से कर्मों के फल का निरुपण करने के पश्चात् यहाँ मोह कर्म की उत्पत्ति का कारण बतलाया गया है, क्योंकि मोह कर्म कर्मों में प्रधान है। वह कर्मों का राजा
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जैसे वगुली से अंडा उत्पन्न होता है और अंडे से बंगुली उत्पन्न होती है
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