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कर्म निरूपल (वर्तमान ) श्रायु के तीसरे भाग का, नवमें भाग का, सत्ताईसवें भाग का अथवा अन्तर्मुहर्त के तीसरे भाग का है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा छह महीना अवाधा काल है।
कर्मों का कथन यहाँ समाप्त किया जाता है । इस कथन से प्रतीत होगा कि श्रात्मा स्वभाव से यद्यपि नि:संग, निष्कलंक, निर्मल और नीरज है तथापि कर्मों के अनादि कालीन संयोग से वह बद्ध, सकलंक, समल और सरज हो रहा है। यह कर्म ज्यों-ज्यों मंद होते जाते हैं त्यों-त्यों प्रात्मा के स्वभाविक गुणों का विकास होता जाता है और श्रात्मा में निर्मलता आती जाती है। प्रात्मा के इस विकास की असंख्य श्रेणियाँ हैं परन्तु शास्त्रकारों ने उन्हें मुख्य चौदह विभागों में विभक्त किया है। उन्हीं को गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थानों के स्वरूप का वर्णन अ.गे किया जायगा। . मूलः-एगया देवलोगेसु, नरएसु वि एगया।
एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ॥२१॥ - छायाः-एकदा देवलोकषु, नरकेष्वपि एकदा ।
___ एकदा प्रासुर कार्य, यथा कर्म अभिगच्छति ॥ २॥ शब्दार्थः-आत्मा अपने किये हुए कर्म के अनुसार कमी देवलोकों में, कभी नरकों में, और कभी असुर काय में जाता है।
भाष्यः--कमों की विवेचना के पश्चात् सूत्रकार यह बतलाते हैं कि जीव पर. कर्मों का क्या फल होता है ? जीव को अपने किये हुए कर्म के अनुसार विविध योनियों में जन्म-मरण करना पड़ता है । जीव जव शुभ कर्मों का उपार्जन करता है तब वह देवलोकों में उत्पन्न होता है । देवलोक अनेक हैं यह सूचित करना वहुवचन देनेका तात्पर्य है जीव जय अशुभ कर्म का उपार्जन करता है तब उसे नरकों में उत्पन्न होना पड़ता है। यहाँ भी, नरक अनेक हैं यह सूचित करने के लिए बहुवचन दिया है। अथवा दोनों जगह वहुवचन प्रयोग करने का यह प्राशय है कि जीव बार-बार देवलोक और नरक आदि में जाता है। अनादि काल से लेकर अब तक जीव अनन्तः वार देवलोक में और अनन्त वार नरक में जा चुका है । देवलोक और नरक गमन का एक साथ वर्णन करने से यह तात्पर्य नहीं है कि देव देवलोक से च्युत होते ही नरक में चला जाता है या नारकी जीव मरकर देवलोक में चला जाता है । नारकी जीव स्वर्ग में जाने योग्य पुण्य का उपार्जन नहीं कर सकता और देवता नरक जाने योग्य पाप का उपार्जन नहीं करता । अतएव देवता मरकर सीधा नरक में नहीं जाता और नारकी मरकर स्वर्ग में नहीं जाता। दोनों को मनुष्य अथवा तिर्यञ्च गति में जन्म लेना पढ़ता है। उसके बाद अपने कर्म के अनुसार चे. स्वर्ग भी जा सकते हैं और नरक भी जा सकते हैं । ऐसा होने पर भी सूत्रकार ने 'कभी-देवलोक में और नवीनरक में जाना बतलाया है सो परस्पर विरोधी अवस्थाओं को सूचित करने के लिए समझना चाहिए । नरक दुःस्त्र की तीव्रता को भोगने की योनि है और स्वर्ग,