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कर्म निरूपर
। ११० । जीव विपाकी अर्थात् जीव में फल देने वाली प्रकृतियां अठत्तर हैं। व इस प्रकार हैं- . चार घातिया कमों की प्रकृतियां ४७, गोत्र कर्म की २, वेदनीय की. २,-५२. [५२) तीर्थकर नाम कर्म [५३] उछास नाम [५४] बादर नाम [५४] सूक्ष्म नाम [५६] पर्याप्त नाम [५७] अपर्याप्त नाम [५८) सुस्वर नाम [५६] दुःस्वर नाम [६.1 आदेय नाम .. (६१) अनादेय नाम [६२] यशः कीर्ति नाम /६३] अंशःकीर्ति नाम [४] वल नाम १५ स्थावर नाम [६६] प्रशस्त विहायोगति नाम ।६७) अप्रशस्त विहायोगति नाम [६८ सुभग नाम 1६६] दुर्सग नाम (७०, मनुष्य गति [७१) देव गति [७२) तिर्यश्च गति |७३] नरक गति [७४-७८) पांच जातियां-ए केन्द्रिय जाति आदि । इन अठत्तर प्रकृतियों का फल साक्षात् जीव में होता है। . .
जिन प्रकृतियों का फल भत्रमें होता हैं वे भव विपाकी प्रकृतियां चार हैं। वे इस प्रकार--[१] नरकायु [२] तिर्यञ्चायु [३] मनुष्पायु [1] देवायु ।
जिन प्रकृतियों का फल नियत स्थान पर अर्थात् परलोक को गमन करते समय जीव को मार्ग में ही होता है, वे क्षेत्र विपाकी प्रकृतियां चार हैं-- १] नरकानु पूर्वी [२] तिर्यश्चानुपूर्वी [३] मनुष्यानुपूर्वी और [४] देवानुपूर्वी । ...
पुदगल में ही अपना फल देने वाली पुदगलविपाकी प्रकृतियां बासठ हैं। वे इस प्रकार हैं-जीवविपाकी ७८, भवविपाकी ४, क्षेत्रविपाकी ४ निकाल दन पर शेप रहने वाली शरीर, बंधन, संघात संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अादि बासंठ प्रकतियां पुद्गल विपाकी हैं।
चार घातिया कर्मों की प्रकृतियां दो विभागों में विभक्त की जा सकती हैं। कुछ प्रतियां ऐसी हैं जो जीव के गुणों को पूर्ण रूप से घातती हैं और कुछ ऐसी हैं जो श्रांशिक रूप में घातती हैं । पूर्ण रूप से घात करने वाली सर्वघाती प्रकृतियां कदवाली और वे इपंकील हैं-1१] केवलज्ञानावरणीय [२] केवलदर्शनावरणयि [३-७
प्रकार की निद्रा अनन्तानुबंधी क्रोध [६] अनन्तानुबंधी मान[१० अनन्तातुः जीमाया [११] अनन्तानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण [१२] क्रोध [१३] मान [१४ माया [१५, लोभ, प्रत्याख्यानावरण १६] क्रोध, [१७] मान [13] माया ११६] ले म (२०] मिथ्यात्व मोहनीय [२१] मिश्रमोहनीय ।
शिक रूपमै जीव के गुण को घात करने वाली देशमाती प्रकृतियां कहलाती
जयींस है-(१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( ३ ) अवधिहानावरण (2) मनःपर्यायज्ञानावरण (५) चनुदर्शनावरण (२) अनुदर्शनाघरा (७) अवधिदर्शनावरण (८-११ ) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ (.१२-२० ) नौ नो इ.पाय (२६) सम्यक्त्व मोहनीन (२२-२६) पाँच प्रकार के अन्तगय । मल:-उदहीसरिसनामाणं तीसई कोडिकोडियो।
उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्तं जहरिणया ॥१६॥