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कर्मनिरूप
सुस्वर (४६) देय ( ४७ ) यशः कीर्त्ति यह नाम कर्म की शुभ प्रकृतियां हैं श्रतएव शुभ नाम कर्म के इतने भेद होते हैं । इन्हीं प्रकृतियों में सातावेदनीय, देव श्रायु, मनुष्य आयु, तिर्यञ्च श्रायु और उच्च गोत्र को सम्मिलित कर देने से समस्त पुण्य प्रकृतियां वाचन हो जाती हैं ।
इनके अतिरिक्त जो प्रकृतियां शेष रहती हैं वे जीव को अनिष्ट होने के कारण पाप प्रकृतियां हैं। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि तिर्यञ्च श्रायु को पुण्य प्रकृतियों में गिना गया है और तिर्यञ्च गति को पाप प्रकृतियों में सम्मिलित किया गया है । इसका कारण यह है कि तिर्यञ्च गति जीव को अनिष्ट है, क्योंकि तिर्यञ्च गति में कोई जाना नहीं चाहता, किन्तु जो तिर्यञ्च गति में चले जाते हैं वे उसका त्याग करना नहीं चाहते - वे मरने से बचने का प्रयत्न करते हैं अतएव तिर्यञ्चों को तिर्यञ्च प्रायु है । इसी कारण उसे शुभ श्रायुश्रों में गिनाया गया है । नारकी जीव नरक में जीवित नहीं रहना चाहते, वे उस श्रायु का नाश चाहते हैं अगर नरक - श्रायु अशुभ है और नरक गति में कोई जाना भी नहीं चाहता इसलिए नरक गति भी अशुभ है । इस प्रकार नाम कर्म का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। विस्तृत विवेचन जिज्ञासुओं को अन्यत्र देखना चाहिए ।
इतना और ध्यान रखना चाहिए कि वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नाम कर्म पुराय प्रकृतियों में भी हैं और पाप प्रकृतियों में भी हैं। जिस जीव को वर्ण, गंध आदि इष्ट हैं-- प्रिय हैं -- उसके लिए वह शुभ हैं और जिसे जो प्रिय हैं उसके लिए बड़ी अशुभ वन जाते हैं । अनिष्ट वर्ण आदि की प्राप्ति अशुभ नाम कर्म से होती है और इष्ट वर्ण आदि की प्राप्ति शुभ नाम कर्म के उदय से होती है !
-मन वचन काय की चक्रता से अर्थात् मन में कुछ हो वचन से और ही कुछ कद्दे और काय से और ही कुछ करे तथा चैरविरोध करे तो अशुभ नाम कर्म का बंध होता है | इनसे विपरीत सरलता रखने तथा चैर-विरोध न करने से शुभ नाम कर्म का वध होना है ।
मूल :- गोयकम्मं तु दुविहं, उच्च नीच आहियं ।
उच्चं अट्ठविहं होइ, एवं नीयं वि श्राहियं ॥ १४ ॥
छाया:- गोत्रकर्म तु द्विविधं, उच्चनीचैश्च श्राहृतम् । उच्चैरष्टविधं भवति एवं नींचेश्रपि श्राहृतम् ॥ १४ ॥
शब्दार्थ:- गोत्र कर्म दो प्रकार का हैं - उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म । उच गोत्र कर्म आठ प्रकार का हैं और नीच गोत्र भी आठ प्रकार का है।
भाष्य:- -कुल- परम्परा से चलाया हुत्रा आवरण यहां गोत्र शब्द का अर्थ है । जिस फुल में परम्परा से धर्म और नीति युक्त श्राचरण होता हैं वह उच्च और जिस फुल में अधर्म और धन्याय पूर्ण श्राचरण होता है वह नीच गोत्र