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पट् द्रव्य निरूपण ( ५ ) प्रदेशवत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य के प्रदेशों का माप हो सके। .. (६) द्रव्यत्व-जिस गुण के कारण द्रव्य सदा एक-सबरीलाल रह कर नवीन:
नवीन पर्यायों को धारण करता रहे । विशेष गुण अात्मा में जैसे ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य हैं, पुदल में रूप, रस, . गंध और स्पर्श हैं, धर्म द्रव्य में गति हेतुत्व है, अधर्म द्रव्य में स्थिति हेतुत्व है। आकाश में अवगाहन हेतुत्व है और काल में वर्तना हेतुत्व है। . शंका-भापने गुणों को नित्य कहा है पर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर मतिज्ञान; श्रुतज्ञान आदि गुणों का नाश हो जाता है। किसी फल का खट्टा रस वदस कर मीठा .. बन जाता है। किसी वस्तु के सड़ने पर सुगंध भी दुर्गन्ध रूप में परिवर्तित हो जाती है। यहां सब जगह गुण का नाश होता हुआ कैसे देखा जाता है ?
समाधान-श्रात्मा का गुण ज्ञान है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि उल ज्ञान गुण की पर्यायें हैं। अतएव मतिज्ञान प्रादि का नाश होना पर्याय का ही नाश होना है, उसे गुण का विनाश नहीं कह लकते । ज्ञान गुण संसारी अवस्था में और मुक्त दशा में विद्यमान रहता है। इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श पुदलद्रव्य के गुण है। लाल, हरा, पीला प्रादि रूप गुण की पर्याय हैं । खट्टा, मीठा, चरपरा श्रादि रस गुण की पयायें हैं । सुगंध और दुर्गन्ध, गंध गुण की पाये हैं। हल्का, भारी, नरम कठोर
आदि स्पर्श गुण की पर्याय हैं। कच्चा फल जब एकता है तब उसके रूप श्रादि चारों में परिवर्तन होता है किन्तु वह परिवर्तन पर्यायों का ही होता है । रूप आदि का नाश कदापि नहीं होता । यदि किसी वस्तु के गुण का नाश हो जाय तो उनके समूह रूप द्रव्य का भी नाश हो जायगा और सत् के विनाश का दोष होगा। . ..
ऊपर द्रव्य, गुण और पर्याय का स्वरूप स्पष्ट किया गया है । इस सम्बन्ध में अनेकानेक एकान्तवाद प्रचलित हैं। कोई एकान्त द्रव्य को ही स्वीकार करता है, कोई सर्वथा पर्यायवादी है । वास्तव में द्रव्य और पर्याय दोनों इस प्रकार मिले हुए हैं कि यदि कोई व्य की ओर झुक कर ही विचार करे तो उसे द्रव्य के अतिरिक्ष पर्याय अलग कहीं मालूम नहीं होता और उससे विपरीत कोई एकान्ततः पर्याय की भोर अक कर विचार करे तो पर्याय ही पर्याय उसे दृष्टिगोचर होती हैं। पर्यायों से मिश दव्य की सत्ता का कहीं दर्शन नहीं होता। संसार में कहीं भी दृष्टि दौड़ाइए, आपको जो कुछ दिखाई देगा वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय ही है । जीव के विषय में विचार करने पर भी जीव की कोई न कोई पर्याय ही आपके ध्यान में श्राएगी। कहा भी है--
अपर्ययं वस्तु समस्यमानं, अद्रव्यमेतच्च विविध्यमानम् । - अर्थात् वस्तु को यदि द्रव्य-दृष्टि से देखा जाय तो वह पर्याय-रहित प्रतीत होगी और उसी को यदि पर्याय-दृष्टि से देखा जाय तो वही वस्तु द्रव्य-रहित प्रतीत होने लगेगी।
वास्तव में उक्त दोनों दृष्टियाँ अपनी-अपनी सीमा में मिथ्या नहीं है क्योंकि