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________________ [ ६७ ] प्रथम अध्याय असत् की उत्पत्ति माननी पड़ेगी । लेकिन यह सर्व सम्मत है कि'नासतो विद्यते भावः नाभावो जायते सतः' अर्थात् असत् की उत्पत्ति नहीं होती और सत् पदार्थ का कभी नाश नहीं होता । श्रतएव वस्तु को ध्रौव्य रूप मानना आवश्यक है पर एकान्त ध्रुव नहीं मानना चाहिए | ध्रौव्य के साथ उत्पाद और व्यय भी प्रतिक्षण होते हैं । जैसे तराजू की डंडी जिस समय ऊँची होती है उसी समय दूसरी और नीची भी होती है और जिस समय नीची होती है उसी समय ऊँची भी होती है । इसी प्रकार जब उत्पाद होता है तब नाश भी अवश्य होता है और जब नाश होता है तब उत्पाद भी अवश्य होता है । शंका - मनुष्य पर्याय का नाश तो आयु समाप्त होने पर होता है, और आयु प्रतिक्षण विनाश और प्रतिक्षण उत्पाद होना कहते हैं । यह कैसे ? समाधान—हमारा ज्ञान बहुत स्थूल है । उससे सूक्ष्म तत्त्व नहीं जाना जा सकता । किन्तु यदि सावधान होकर विचार किया जाय तो प्रतिक्षण पर्यायों का उत्पाद और विनाश प्रतीत होने लगेगा। इस बात को एक उदाहरण द्वारा समझना . चाहिए । बालक जब उत्पन्न होता है तो बहुत छोटा होता है । दश वर्ष की उम्र में वह बड़ा हो जाता है और पच्चीस-तीस वर्ष की उम्र में और भी बड़ा होकर अन्त में वृद्ध होता है । अव प्रश्न यह है कि इस बालक में जो अवस्था भेद हुआ है वह किस समय हुआ ? क्या चालक दसवें वर्ष में एक दम बढ़ गया ? क्या वह तीसवें वर्ष में लहसा युवक हो गया ? क्या वह किसी एक ही क्षण में वृद्ध हो गया ? नहीं तो क्या प्रति वर्ष किसी नियत दिन में वह बढ़जाता है ! ऐसा भी नहीं है । तो क्या उसके बढ़ने का कोई समय निश्चित है ! नहीं। तब तो यही मानना चाहिए कि चालक प्रतिक्षण अपनी पहली अवस्था को त्यागता जाता है । और प्रतिक्षण नवीन श्रवस्था को ग्रहण करता जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि क्षण-क्षण में बालक की पूर्व पर्याय का विनाश होता है और क्षण-क्षण उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार उत्पाद और विनाश का क्रम अनादि काल से चलता रहा है। प्रतिक्षण में होने वाला यह परिवर्त्तन बहुत सूक्ष्म है, इसलिए स्थूल दृष्टि से वह दिखाई नहीं देता । किन्तु इस परिवर्तन में जब समय की अधिकता आदि किसी कारण से स्थूलता श्राती है तब वह अनायास ही हमारी कल्पना में श्राजाता है। मगर युक्ति से यह परिवर्तन सिद्ध है । अतएव निरन्तर उत्पाद, व्यय और व्य होना ही लल् का लक्षण है । जिसमें यह तीनों नहीं हैं वह असत् है, उसका सद्भाव नहीं माना जा सकता । 1 जो पर्याय स्थूल होने के कारण सर्वसाधारण की कल्पना में आ जाती है और जो त्रिकाल - स्पर्शी होती है, उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे जीव की मनुष्य
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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