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पट् द्रव्य. निरूपण. रहना, बठना, सोना, मन को स्थिर करना आदि स्थिति-शील क्रियाएँ होती है ।
, व्याख्याप्रज्ञप्ति में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के आठ-आठ मध्य प्रदेश चताये गये हैं। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कम से कम तीन और अधिक से अधिक छह प्रदेशों से स्पष्ट होता है और अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश . श्रधर्मास्तिकाय के कम से कम चार और अधिक से अधिक सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है। लोकाकाश के एक प्रदेश में धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश और अंधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवश्य विद्यमान है और जहां इन दोनों का एक-एक प्रदेश है वहां दूसरा अधर्मास्तिकाय या धर्मास्तिकाय का प्रदेश नहीं रह सकता । तात्पर्य यह .. है कि जैसे संख्यात, असंख्यात और अन्नत-प्रदेश वाला स्कंध भी आकाश के एक प्रदेश में अवगाहन कर सकता है उसी प्रकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के अनेक प्रदेश एक आकाश-प्रदेश में अवगाढ़ नहीं हैं। इससे यह भी प्रतीत हो जाता है कि लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही धर्म और अधर्म द्रव्य के भी हैं। मूल:-वत्तणा लक्खणो कालो, जीवो उव भोग लक्खयो। .. नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥ १६ ॥ छाया-वर्तनालक्षणः कालो, जीव उपयोग लक्षणः।
ज्ञानेन दर्शनेन च, सुखेन दुःखेन च ॥ १६ ॥ शब्दार्थ-वर्तना अर्थात् पर्यायों के परिवर्तन में सहायक होना काल का लक्षण . है। उपयांग जीव का लक्षण है। सुख, दुःख, ज्ञान और दर्शन से जीव की पहचान होती है। . भाप्य-जीव का विस्तृत स्वरूप-प्रतिपादन किया जा चुका है। काल के विषय में भी सामान्य कथन किया जा चुका है। विशेप इतना जानना चाहिए कि समय, श्रावली, मुहूर्त, अहोरात्रि श्रादि व्यवहार-काल को काल द्रव्य मानने के अतिरिक्त. .. किसी-किसी प्राचार्य ने इन सब का कारण भूत निश्चय काल भी स्वीकार किया है। थोग शास्त्र में प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है- . . . . . . . . . . .
लोकाकाशप्रदेशस्था भिन्ना: कालाणवस्तु ये। भावानां परिवाय, मुख्यः कालः स उच्यते ॥ .., ज्योतिः शास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः तव जीर्णादिरूपेण यदमी भुवनोदरे।।
पदार्थाः परिवर्तन्ते तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ अर्थात् लोकाकाश के प्रदेशों में रहने वाले, एक दूसरे से भिन्न काल के जो 'अणु हैं वे मुख्य काल कहलाते हैं और वही पदार्थों के परिवर्तन में निमित्त होते है। . .. ज्योतिष शास्त्र में जिसका समय पावली श्रादि परिमाण कहा गया है वत्र ।