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[ ५४ ].
षट् द्रव्य निरूपण द्रव्यों की संख्या का निराकरण किया गया है। वैषेशिक पृथ्वी, आप, तेज, वायु, अाकाश, काल, दिशा, श्रात्मा और मन, ये नौ द्रव्य स्वीकार करते हैं । इनकी संख्या वास्तविक नहीं है, क्योंकि दिशा का श्राकाश में अन्तर्भाव होता है। दिशा पृथक् द्रव्य नहीं है अपितु आकाश के विभिन्न विभागों में ही दिशा की कल्पना की गई है। इसी प्रकार मन आत्मा की ही एक शक्ति-विशेष है अतः उसे प्रात्मा से पृथक नहीं मानना चाहिए। यदि मन को पृथक् द्रव्य माना जाय तो इन्द्रियों को भी पृथक् द्रव्य मानना पड़ेगा। पृथ्वी, आप, तेज और वायु में रहने वाला एकोन्द्रय जीव श्रात्मद्रव्य में अन्तर्गत है और इनका शरीर पुद्गल द्रव्य में समाविष्ट है। ... सांश्यों ने पच्चीस तत्वों की कल्पना की है। वे बुद्धि और अहंकार को पुरुष तत्व अर्थात् प्रात्मा से भिन्न स्वीकार करते हैं, जो अनुभव-विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त उन्होंने शब्द श्रादि से श्राकाश प्रादि पंच भूतों की उत्पत्तेि भानी है। शन पुद्गल है, इसका समर्थन आगे किया जायगा। पौद्गलिक शब्द से अपौद्गलिक प्राकाश नहीं उत्पन्न हो सकता । इसी प्रकार उनकी अन्य कल्पनाएँ भी युक्ति और अनुभव से बाधित हैं । पूर्ण विचार करने से ग्रंथ-विस्तार होगा। ......
इसी प्रकार नैयायिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का धौद्धों द्वारा स्वीकृत विज्ञान, वेदना, संज्ञा, आदि पांच स्कन्धों का, वेदान्तियों द्वारा श्राभिमत एकमात्र पुरुष तत्व का, चार्वाकों द्वारा अंगीकृत पांच महाभूतों का, विवार कर उनका यथा योग्य प्रति विधान करना चाहिए।
शंका-पहले तत्वों की संख्या नौ बतलाई गई है और यहां द्रव्यों की संख्या छह बतलाई गई है । यह कथन परस्पर विरोधी होने से कैसे माना जा सकता
उत्तर-दोनों निरूपणों में विरोध समझना ठीक नहीं है। तत्त्वों का विवेचन शाध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है और द्रव्यों का कथन दार्शनिक दृष्टि से । सुमुनु जीवों को जीव, अजीव का स्वरूप समझकर यह जानना विशेष उपयोगी होता है कि जीव के संसार-भ्रमण के कारण क्या है ? संसार से मुक्ति पाने के कारण क्या हैं ? मुक्ति क्या है ? अतः संसार के कारण रूप में प्रास्त्रव और बंध का, मोक्ष के कारण रूप में संवर और निर्जग का कथन किया है। मोक्ष प्रधान लक्ष्य हाने के कारण उसका वर्णन करना उपयोगी है ही। पाप और पुण्य भी संसार-मोक्ष के कारण होने से उनका भी स्वरूप समझाया गया है।
द्रव्यों के विवेचन ले यह विदित होता है कि हम जिस जगत् में रहते हैं उसकी यथार्थ स्थिति क्या है ? वह किन-किन मौलिक पदार्थों का हैं ?
इस प्रकार दोनों विवेचना में दृष्टि भेद होने पर भी वास्तविक भिन्नता नहीं है। तरच पारस्परिक विरोध की कल्पना असंगत है!