________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, श्राठवाँ भाग 335 विषय बोल भाग पृष्ठ प्रमाण 'स्थान तेईस साधु केउतरनेह२३ 6 170 श्राचा ध्रु.२चू १अ २उ.२ योग्य तथा अयोग्य स्थान परिहरणोपघात 668 3 256 ठा 103 ३सू 738 1 स्थानातिग 357 1 371 ठा ५उ १सू 366 स्थापन दोष 865 5 162 प्रा द्वा ६७गा ५६५,ध अधि 3 लो.२२टी पृ ३८,पि नि गा 62, पि वि गा 3, पचा 13 गा५ स्थापना अनन्तक 417 1 441 ठा ५उ ३सू 462 स्थापना कर्म 760 3 441 प्राचा भ २उ 1 नि गा 183 स्थापना दोष 347 1356 प्राव ह अ ३नि गा 1107 पृ ५१७,प्रवद्धा 2 गा 106 स्थापना निक्षेप 206 1 187 अनुसू १५०,न्यायप्र प्रध्या 6 स्थापनानुपूर्वी 717 3 360 अनु स् 71 स्थापनानुयोग 526 2 262 विशे गा 1360 स्थापनाप्रमाणनामक७भेद७१६ 3 400 अनुसू 130 गा८५ स्थापनार्य 785 4 266 बृ उ पनि गा 3263 2 स्थापना सत्य / 668 3 366 ठा १०सू ७४१,पन्न प 11 सृ १६५,ध मधि ३श्लो 411 121 स्थापिता पारोपणा 326 1 335 ठा 52.2 433 स्थावर 8 15 ठा २उ 4 सू 101 स्थावरकाय पाँच 412 1 437 ठाउ १स 363 -- - - - 1 प्रतिशय रूप से म्यान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु / 2 सश या विसदृश प्रामार वाली वस्तु में किसी की स्थापना करके उसे उस नाम से कहना स्थापना सत्य है / जैसे शतरज के मोहरों को हाथी घोड़ा प्रादि कहना अथवा 'क' इस प्राकार विशेष को 'क' कहना /