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श्री जैन सिद्धान्त बोल संघs, पाठवाँ भाग
विषय चोल भाग पृष्ठ प्रमाण पौगलिक सम्यक्त्व १० ११० प्रव द्वा १४६ या ६ ४२ टी. पौषध के अठारह दोष ८६४ ५ ४१० शिक्षा, पौषध के पाँच अतिचार ३११ १ ३११ उपा. १ सू" पोषध व्रत निश्चय और ७६४ ४ २८४ भागम. व्यवहार से पौषधोपवास व्रत १८६११४०पंचा ३गा २६,प्राव ह भ पृ.८३५ प्रकीर्णक
७२६ ३ ४१६ तत्त्वार्य.अध्या ४ सू ४ प्रकीर्ण तप
४७७ २८८ उत्त-अ ३० गा ११ प्रकृति बन्ध २४७ १ २३१ ठा.४५.२६६,कर्म.मा १गा २ प्रकृतियॉर८मोहनीयकमकीह५१ ६ २८४ कर्म.भा १गर १३-२२,सम २८ प्रकृतियॉ४१उदीरणाविनाह८६ ७ १४६ कर्म भा ६गा ५४-५५ उदय में आने वाली प्रकृतियाँ ४२नाम कर्म की ६६१ ७ १४६ पन्न.प २३२.२सू २६३ प्रकृतियाँ ४२ पुण्य की १६३ ७ १५० कर्म.भा.मा १५,१७ प्रचला
४१६१४४३ | फर्म भा १गा.११, पन्न प २३ मचलाप्रचला ४१६ १४४३ | उ २सू २६३ मच्छन्न काल आगार ४८३ २ १८ श्राव हश्र ६ पृ ५८२,प्रव द्वा.४ २ प्रज्ञा अवस्था ६७८ ३ २६८ ठा १• उ ३ स् ७७२ मतर तप
४७७ २८७ उत्तय ३०गा १० मतर नरकों में ५६० २ ३२८ जी प्रति.३सू ५० टी प्रतर भेद
७५० ३ ४३३ ठा १०सू ७१३टी ,पन्न प १३
१ वे देव जो नगरनिवासी प्रयवा साधारण जनता की तरह रहते है।
२ दस अवस्थाओं में से एक अवस्था, इस अवस्था को प्राप्त होने पर पुरुष को अपने अभीष्ट की सिद्धि एव कुटुम्बवृद्धि की बुद्धि उत्पन्न होती है।