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श्री सेठिया जैन ग्रन्थालय
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उनकी इच्छा
१२) गृहस्थ के घर मिक्षार्थ गए हुए साधु से कोई वस्त्र, पात्र कम्बल, झोली, पात्र पूंछने का वस्त्र या पूंजणी एवं रजोहरण लेने के लिए निमंत्रण करे तो साधु को यह कह कर उन्हें लेना चाहिए कि ये वस्त्रादि आचार्य की नेश्राय लेता हूँ । वे अपने लिए रख सकते हैं, मुझे दे सकते हैं और हो तो दूसरे साधुओं को दे सकते हैं । लेने के बाद उपाश्रय में लाकर साधु उन्हें प्राचार्य के चरणों में रखे । यदि श्राचार्य लाने वाले को ही वस्त्रादि देवें तो गुरु महाराज से दूसरी बार आज्ञा लेकर उन्हें रखने एवं परिभोग करने का साधु का कल्प है । इसी प्रकार जंगल जाने या स्वाध्याय के लिए उपाश्रय से बाहर निकले हुए साधु से उक्त वस्त्रादि लेने के लिए गृहस्थ निमन्त्रण करे तो उसे ऊपर लिखे अनुसार ही गृहस्थ से लेना चाहिए एवं आचार्य के पास लाकर आचार्य की आज्ञानुसार ही उन्हें रखना चाहिए एवं उनका परिभोग करना चाहिए ।
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गोचरी के लिये गई हुई अथवा जंगल या स्वाध्याय भूमि जाती हुई साध्वी से उक्त वस्त्रादि की निमन्त्रणा होने पर उन्हें लेने की विधि ऊपर लिखे अनुसार ही है । अन्तर केवल इतना है कि साध्वी आचार्य की जगह प्रवर्तिनी की नेत्राय में लेती है एवं प्रवर्तिनी की सेवा में ही उन्हें लाती है । यदि प्रवर्तिनी लाने वालो साध्वी को उन्हें देवे तो वह दूसरी बार वर्तिनी की याज्ञा लेकर उन्हें रखती है एवं उनका परिभोग करती है ।
(१३) साधु साध्वियों को रात्रि एवं विकाल में अशनादि चारों आहार लेना नहीं कल्पता है । कई आचार्य सन्ध्या को रात्रि एवं शेष सारी रात को विकाल कहते हैं। दूसरे आचार्य रात्रि का रात एवं विकाल का सन्ध्या अर्थ करते हैं। नियुक्ति एवं भाष्यकार ने रात्रि भोजन से साधु के पाँचों महाव्रतों का दूषित होना बतलाया है।