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श्री जन सिद्धन्त बोल संग्रह, छा भाग
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(३) साध्वियों को अन्दर से लेप किया हुआ घटी के आकार' का संकड़े मुंह का पात्रक (पड़घा) रखना एवं उसका परिभोग करना कल्पता है। साधुओं को ऐसा पात्र रखनानहीं कल्पता है।
(४, साधु साध्वियों को वस्त्र की चिलमिली (पर्दा) रखना एवं उसका परिभोग करना कल्पता है । चिल मली वस्त्र, रज्जु, वल्क, दंड और कटक इस तरह पाँच प्रभार की होती है। इन पाँचों में वस्त्र के प्रधान होने से यहाँ सूत्रकार ने वस्त्र की चिलमिली दी है। १५) साधु साध्वियों को जलाशय के किनारे खड़े रहना, बैठना, सोना, निद्रा लेना, अशन, पान आदि का उपभोग करना, उच्चार, प्रश्रवण, कफ एवं नाक का मैल परठना, स्वाध्याय परना, धर्म जागरणा करना एवं कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पना । १६) साधु साध्वियों को चित्र कर्म वाले उपाय में रहना नहीं कल्पता है। उन्हें चित्ररहित उगश्रय में रहना चाहिये ।
(७) साधियों को शय्यावर को निश्रा के विना रहना नहीं कल्पता । उन्हें शय्यातर की निश्रा में ही उगध्य में रहनाचाहिए। 'मुझे आपकी चिन्ता है, आप किसी बात से न डरें, इस प्रसार शम्यातर के स्वीकार करने पर ही साब्धियाँ उसके मकान में रह सकती हैं। साधु कारण होने पर शय्यातर की निश्रा में और कारण न होने पर उसकी निश्श के बिना रह सकते हैं। (८) साधु साध्वियों को सागारिक उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता है । जहाँ रूप, आभरण, वस्त्र,अलंकार,भोजन, गन्ध,वाय, गीत वाला या विना गीत वाला नाटको हसा.ारिक उपाश्रय है। इन्हें देख कर भुक्तभोगी साधु को मुक्त भोगों का रमरण हो सकता है एवं अभुक्त भोगी को कुतूहल उत्पन्नहोता है। विषयोंकी
ओर आकृष्ट साधुसाध्वी से स्वाध्याय, भिक्षा आदि का ओर उपेक्षा होना सम्भव है । आपस में वे इन चीजों क भले बुरे की आलोचना