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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग ३०३ (१६) भगवान महावीर स्वामी अनुत्तर (प्रधान) धर्म का उपदेश देकर सर्वोत्तम शुक्ल ध्यान (सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान के उत्तर दो भेद) ध्याते थे। उनका ध्यान अत्यन्त शुक्स वस्तु के समान अथवाशुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल था एवं शंख तथा चन्द्रमा के समान शुभ्र था। (१७) श्रमण भगवान महावीर स्वामी ज्ञान दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानावरणीयादि समस्त कर्म क्षय करके सर्वोत्तम उस प्रधान सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं जो सादि अनन्त है अर्थात् जिसकी आदि है किन्तु अन्त नहीं है।
(१८)जैसे सुपर्ण (सुवर्ण) जाति के देवों का क्रीड़ा रूप स्थान शाल्मली वृक्ष सव वृक्षों में श्रेष्ठ है तथा सब वनों में नन्दन वन श्रेष्ठ है इसी तरह ज्ञान और चारित्र में भगवान् महावीर स्वामी सबसे श्रेष्ठ हैं।
(१६) जैसे शब्दों में मेघ का शब्द गर्जन) प्रधान है, नक्षत्रों में चन्द्रमा प्रधान है तथा गन्ध वाले पदार्थों में चन्दन प्रधान है इसी तरह कामनारहित भगवान् सभी मुनियों में प्रधान एवं श्रेष्ठ हैं।
(२०) जैसे समुद्रों में स्वयम्भूग्मण समुद्र नाग जाति के देवों में धरणेन्द्र और रस वालों में ईक्षुरसोदक (ईख के रस के समान जिसका जल मधुर है) समुद्र श्रेष्ठ है उसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सब तपस्वियों में श्रेष्ठ एवं प्रधान हैं।
(२१) जैसे हाथियों में इन्द्र का ऐरावण हाथी, पशुओं में सिंह, नदियों में गङ्गा, और पतियों में वेणुदेव (गरुड़) श्रेष्ठ है इसी तरह निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र श्रीमन्महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं।
(२२) जैसे सब योद्धाओं में चक्रवर्ती प्रधान है, सब प्रकार के फूलों में अरविन्द (कमल)का फूल श्रेष्ठ है और क्षत्रियों में दान्तवाक्य अर्थात् जिनके वचन मात्र से ही शत्रु शान्त हो जाते हैं ऐसे चक्रवर्ती प्रधान हैं इसी तरह ऋषियों में श्रीमान् वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ हैं।