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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
दण्ड दिया। न्यायाधीश की यह औत्पत्तिकी बुद्धि थी।
(२२) भिक्षु-किसी जगह एक बावाजी रहते थे। उन्हें विश्वासपात्र समझ कर एक व्यक्ति ने उनके पास अपनी मोहरों की थैली अमानत रखी और वह परदेश चला गया। कुछ समय पश्चात् वह लौट कर आया। बावाजी के पास जाकर उसने अपनी थैली माँगी। बाबाजी टालाटुली करने के लिये उसे आज कल बताने लगे।
आखिर उसने कुछ जुआरियों से मित्रता की और उनसे सारी हकीकत कही। उन्होंने कहा-तुम चिन्ता मत करो, हम तुम्हारी थैली दिलवा देंगे। तुम अमुक दिन, अमुक समय बावाजी के पास आकर तकाजा करना । हम वहाँ आगे तैयार मिलेंगे।
जुआरियों ने गेरुए वस्त्र पहन कर संन्यासो का वेश बनाया। हाथ में सोने की खूटियाँ लेकर वे बाबाजी के पास आये और कहने लगे-हम लोग यात्रा करने जाते हैं। आप बड़े विश्वासपात्र हैं, इसलिये ये सोने की खूटियाँ वापिस लौटने तक हम आपके पास रखना चाहते हैं।
यह बातचीत हो ही रही थी कि पूर्व संकेत के अनुसार वह व्यक्ति बावाजी के पास आया और थैली माँगने लगा । सोने की खू टियाँ धरोहर रखने वाले सन्यासियों के सन्मुख अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिये वावाजी ने उसी समय उसकी थैली लौटा दी। वह अपनी थैली लेकर रवाना हुआ। अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने से संन्यासी वेषधारी जुआरी लोग भी कोई बहाना बना कर सोने की खुटियॉ ले अपने स्थान पर लौट आये। बबाजी से धरोहर दिलवाने की जुआरियों की औत्पत्तिकी बुद्धि थी।
(२३) चेटकनिधान (वालक और खजाने का दृष्टान्त)एक गाँव में दो आदमी थे। उनमें आपस में मित्रता हो गई। एक बार उन दोनों को एक निधान (खजाना) प्राप्त हुआ । उसे देख