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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देव उन्हें विविध वेदना देते हैं और साथ ही पूर्वकृत कर्मों का म्मरण कराते हैं। जैसे तू बड़े हर्ष के साथ प्राणियों का मांस खाता था, मद्य पान करता था, परस्त्री सेवन करता था, अब उन्हीं का फल भोगता हुआ तू क्यों चिल्ला रहा है ?
(२०) परमाधार्मिक देवों द्वारा मारे जाते हुए वे नारकी जीव नरक के एक स्थान से उछल कर विष्ठा, मूत्र आदि अशुचि पदार्थों से परिपूर्ण महादुःखदायी दूसरे स्थानों में गिर पड़ते हैं किन्तु वहाँ भी उन्हें शान्ति प्राप्त नहीं होती। अशुचि पदार्थों का श्राहार करते हुए वे वहाँ बहुत काल तक रहते हैं। परमाधार्मिक देव कृत अथवा परम्पर कृत कृमि उन नारकी जीवों को बुरी तरह काटते हैं। ' (२१) नारकी जीवों के रहने का स्थान अत्यन्त उष्ण है। निधत्त और निकाचित कर्मों के फल रूप वह उन्हें प्राप्त होता है। अत्यन्त दुःख देना ही उस स्थान का स्वभाव है। परमाधार्मिक देवनारकी जीवों को खोड़ा बेड़ी में डाल देते हैं, उनके अङ्गों को तोड़ मरोड़ देते हैं और मस्तक में कील से छेद कर घोर दुःख देते हैं। (२२) नरकपाल स्वकृत कर्मों से दुःख पाते हुए नारकी जीवों के ओठ, नाक और कान तेज उस्तरे से काट लेते हैं। उनकी जीभ को बाहर खींचते हैं और तीक्ष्ण शूल चुभा कर दारूण दुःख देते हैं।
(२३) नाक, कान, ओठ आदि के कट जाने से उन नारकी जीवों के अङ्गों से खून टपकता रहता है। सूखे तालपत्र के समान दिन रात वे जोर जोर से चिल्लाते रहते हैं। उनके अङ्गों को अग्नि में जलाकर ऊपर वार छिड़क दिया जाता है जिससे उन्हें अत्यन्त वेदना होती है एवं उनके अङ्गों से निरन्तर खून और पीच भरता रहता है। (२४) सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-रक्त और पीच को पकाने वाली जुम्भी नामक नरक भूमि को कदाचित् तुमने सुना होगा । वह अत्यन्त उष्ण है। पुरुष प्रमाण से भी वह अधिक