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२३६ श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला ६४७-सूयगडांग सूत्र के पाँचवें अध्ययन
___ की सत्ताईस गाथाएं सूयगडांग सूत्र के पाँचचें अध्ययन का नाम नरयविभत्ति है। उसमें नरक सम्बन्धी दुःखों का वर्णन किया गया है। इसके दो उद्देशे हैं। पहले उद्देशे में सत्ताईस गाथाएं हैं और दूसरे उद्देशे में पच्चीस गाथाएं हैं। पञ्चीस गाथाओं का अर्थ पच्चीसवें बोल संग्रह में दिया जा चुका है। यहाँ पहले उद्देशे की सत्ताईस गाथाओं का अर्थ दिया जाता है।
(१) जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से पूछा-हे भगवन् ! नरक भूमि कैसी है ? किन कर्मों से जीव वहाँ उत्पन्न होते हैं ? और वहाँ कैसी पीड़ा भोगनी पड़ती है ? ऐसा पूछने पर सुधर्मास्वामी फरमाने लगेहे आयुष्मन् जम्बू ! तुम्हारी तरह मैंने भी केवल ज्ञानी श्रमण भगवान महावीर स्वामी से पूछा था कि भगवन् !
आप केवलज्ञान से नरकादि के स्वरूप को जानते हैं किन्तु मैं नहीं जानता। इसलिए नरक का क्या स्वरूप है और किन कर्मों से जीव यहाँ उत्पन्न होते हैं ? यह बात मुझे आप कृपा करके बतलाइये।
(२) श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से रहते हैं कि इस प्रकार पूछने पर चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न, सब वस्तुओं में सदा उपयोग रखनेवाले, काश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि नरक स्थानबड़ा ही दुःखदायी और दुरुत्तर है। वह पापी जीवों का निवासस्थान है। नरक का स्वरूप आगे बताया जायगा ।
(३) प्राणियों को भय देने वाले जो अज्ञानी जीव अपने जीवन की रक्षा के लिये हिंसादि पाप कर्म करते हैं वे तीच पाप तथा घोर अन्धकार युक्त महा दुःखद नरक में उत्पन्न होते हैं।
(४) जो जीव अपने सुख के लिए त्रस और स्थावर प्राणियों