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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला देते हैं तथा गर्म सीसा पीने आदि के लिए बाध्य करते हैं।
(१५) परमाधामिक देव, नारकी जीवों को बाण चुभा चुभा कर, हाथी और ऊंट के समान भारी भार ढोने के लिए प्रवृत्त करते हैं। उनकी पीठ पर एक दो अथवा अधिक नारकी जीवों को बिठा कर उन्हें चलने के लिए प्रेरित करते हैं। किन्तु भार अधिक होने से जब वे नहीं चल सकते हैं तब कुपित होकर उन्हें चावुक से मारते हैं और मर्म स्थानों पर प्रहार करते हैं। (१६) बालक के समान पराधीन नारकी जीव रक्क, पीव तथा अशुचि पदार्थों से पूर्ण और कण्टकाकीर्ण पृथ्वी पर परमाधार्मिक देवों द्वारा चलने के लिये बाध्य किये जाते हैं। कई नारकी जीवों के हाथ पैर बांध कर उन्हें मूच्छित कर देते हैं और उनके शरीर के टुकड़े करके नगरबलि के समान चारों दिशाओं में फेंक देते हैं। (१७) परमाधार्मिक देव विक्रिया द्वारा आकाश में महान् ताप का देने वाला एक शिला का बना हुआ पर्वत बनाते हैं और उस पर चढ़ने के लिए नारकी जीवों को बाध्य करते हैं। जब वे उस पर नहीं चढ़ सकते तब उन्हें चाबुक आदि से मारते हैं। इस प्रकार वेदना सहन करते हुए वे चिर काल तक वहाँ रहते हैं। (१८) निरन्तर पीड़ित किये जाते हुए पापी जीव रात दिन रोते रहते हैं । अत्यन्त दुःख देने वाली विस्तृत नरकों में पड़े हुए नारकी जीवों को परमाधार्मिक देव फाँसी पर लटका देते हैं।
(१६. पूर्व जन्म के शत्रु के समान परमाधार्मिक देव हाथ में मुद्गर और मूसल लेकर नारकी जीवों पर प्रहार करते हैं जिससे उनका शरीर चूर चूर हो जाता है, मुख से रुधिर का वमन करते हुए नारकी जीव अधोमुख होकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। (२०) नरकों में परमाधार्मिक देवों से विक्रिया द्वारा बनाये हुए विशाल शरीर वाले रौद्र रूपधारी निर्भीक बड़े बड़े शृगाल