________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
२१३
(२०) अनवकांक्षा प्रत्यया (२१) प्रायोगिकी २२) सामुदानिकी (२३) प्रेम प्रत्यया (२४। द्वेष प्रत्यया (२५। ईर्यापथिकी ।
इन क्रियाओं का अर्थ और विस्तृत विवेचन इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के बोल नं० २६२ से २६६ पृष्ठ २७६ से २८३ तक में दिया गया है । (ठाणाग २ उ० १ सूत्र ६०) (ठाणाग ५ उ० २ सूत्र ४१६)
निव० गा० १७-१६) हरि० आवश्यक अ० ४ पृ०६११) १४१-सूयगडांग सूत्र के पाँचवें अध्ययन
की पच्चीस गाथाएं सूयगडांग सूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम 'नरयविभक्ति' है। उसके दो उद्देशे हैं। पहले में सत्ताईस और दूसरे में पच्चीस गाथाएं हैं । दोनों उद्दशों में नरक के दुःखों का वर्णन किया गया है। यहाँ दूसरे उद्देशे की पचीस गाथाओं का अर्थ दिया जाता है
१. श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूम्बामी से फरमाते हैं-हे आयुष्मन् जम्बू ! अब मैं निरन्तर दुःख देने वाले नरकों के विषय में कहूँगा। इस लोक में पाप कर्म करने वाले प्राणी जिस प्रकार अपने पाप का फल भोगते हैं सो मैं बताऊंगा ।
(२) परमाधार्मिक देव नारकी जीवों के हाथ पैर वॉध कर गिरा देते हैं । उस्तरे या तलवार से उनका पेट चीर देते हैं। लाठी आदि के प्रहार से उनके शरीर को चूर चूर कर देते हैं । करुण क्रन्दन करते हुए नारकी जीवों को पकड़ कर परमाधार्मिक देव उनकी पीठ की चमड़ी उखाड़ लेते हैं। ___ (३) परमाधार्मिक देव नारकी जीवों की भुजा को समूल काट देते हैं। मुँह फाड़ कर उसमें तपा हुआ लोहे का गोला डाल कर जलाते हैं । गर्म सीसा पिलाते समय मद्यपान की, शरीर का मॉस \ काटते समय मॉस भक्षण की, इस प्रकार वेदना के अनुसार