________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग २११ लेकिन कार्यत्व की व्याप्ति दोनों के साथ हो ही नहीं सकती।
(१५) प्रकरणसमा-मिथ्या व्याप्ति पर अवलम्बित दूसरे अनुमान से दोष देना प्रकरणसमा जाति है। जैसे-'यदि अनित्य (घट) के साधर्म्य से कार्यत्व हेतु शब्द की अनित्यता सिद्ध करता है तो गोत्व आदि सामान्य के साधर्म्य से ऐन्द्रियकत्व (इन्द्रिय का विषय होना) हेतु नित्यता को सिद्ध करेगा । इसलिए दोनों पक्ष वरावर कहलायेंगे । यह असत्य उत्तर है । अनित्यत्व और कार्यत्व की व्याप्ति है पर ऐन्द्रियकत्व और नित्यत्व की व्याप्ति नहीं है।
(१६) अहेतुसमा-भूत आदि काल की असिद्धि बताकर हेतु मात्र को अहेतु कहना अहेतुसमा जाति है । जैसे-हेतु साध्य के पहले होता है, पीछे होता है या साथ होता है ? पहिले तो हो नहीं सकता, क्योंकि जब साध्य ही नहीं है तो साधक किसका होगा ? न पीछे हो सकता है क्योंकि जब साध्य ही नहीं रहा तब वह सिद्ध किसे करेगा ? अथवा जिस समय था उस समय यदि साधन नहीं था तो वह साध्य कैसे कहलाया ? दोनों एक साथ भी नहीं बन सकते, क्योंकि उस समय यह सन्देह हो ज यगा कि कौन साध्य है और कौन साधक है ? जैसे विन्ध्याचल से हिमालय की और हिमालय की विन्ध्याचल से सिद्धि करना अनुचित है उसी तरह एक काल में होने वाली वस्तुओं को साध्य साधक ठहराना अनुचित है। यह असत्य उत्तर है क्योंकि इस प्रकार त्रिकाल की असिद्धि बतलाने से जिस हेतु के द्वारा जातिवादी ने हेतु को अहेतु ठहराया है वह हेतु (जातिवादी का त्रिकालासिद्ध हेतु) भी अहेतु ठहर गया और जातिवादी का वक्तव्य अपने आप खण्डित हो गया। दसरी बात यह है कि काल भेट होने से या अभेद होने से अविनाभाव सम्बन्ध नहीं विगडता। यह बात पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर, कार्य, कारण आदि हेतुओं