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पाप से अनुशास करने वालाधि और मोक्ष
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग २०१ कर सकते । फिर भी प्राणी उनके लिये रोता है और मोह को प्राप्त होता है। उसके धन को अवसर पाकर दूसरे लोग छीन लेते हैं। (२०) जिस प्रकार क्षुद्र प्राणी सिह से डरते हुए दूर ही से निकल जाते हैं, इसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुप धर्म को विचार कर पाप को दूर ही से छोड़ देवे।
(२१) धर्म के तत्व को समझने वाला बुद्धिमान व्यक्ति हिंसा से पैदा होने वाले दुःखों को वैरानुबन्धी तथा महाभयदायी जान कर अपनी आत्मा को पाप से अलग रक्खे ।
(२२) सर्वज्ञ के वचनों पर विश्वास करने वाला मुनि कभी झूठ न बोले । असत्य का त्याग ही सम्पूर्ण समाधि और मोक्ष है। साधु किसी सावध कार्य को न स्वयं करे, न दूसरे से करावे और न करने वाले को भला समझे । (२३) शुद्ध आहार मिल जाने पर उसके प्रति राग द्वेष करके साधु चारित्र को दूपित न करे। स्वादिष्ट आहार में मूळ या अभिलापान रक्खे। धैर्यवान् और परिग्रह से मुक्त हो अपनी पूजा प्रतिष्ठा या कीर्ति की कामना न करता हुआ शुद्ध रांयम का पालन करे। (२४) दीक्षा लेने के बाद साधु, जीवन की इच्छा न करता हुआ शरीर का ममत्व छोड़ दे। नियाणा न करे । जीवन या मरण की इच्छा न करता हुआ भिक्षु सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर विचरे।
(सूयगडाग सूत्र १ श्रुत० १० अध्ययन) ६३३-विनय समाधि अध्य० की२४ गाथाएं
दशकालिक सूत्र के नवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि अध्ययन है। इस में शिष्य को विनय धर्म की शिक्षा दी गई है। इसमें चार उद्देशे हैं। पहले उद्देशे में सत्रह गाथाएं हैं जिन्हें इसी ग्रन्थ के पश्चम भाग के बोल नं०८७७ में दिया जा चुका है। दूसरे उद्देशे में चौवीस गाथाएं हैं। तीसरे में पन्द्रह गाथाएं हैं उनका