________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
१६४
तथा विवेक में रहते हुए अपनी आत्मा को धर्म में स्थिर करे एवं प्राणातिपात से निवृत्त होवे ।
(७) साधु समस्त संसार को समभाव से देखे । किसी का प्रिय या अप्रिय न करे । प्रवज्या अंगीकार करके भी कुछ साधु परीपह और उपसर्ग आने पर कायर बन जाते हैं । अपनी पूजा और प्रशंसा के अभिलापी बनकर संयम मार्ग से गिर जाते हैं।
(क)जो व्यक्ति दीक्षा लेकर आधाकर्मी आहार चाहता है नथा उसे प्राप्त करने के लिए भ्रमण करता है वह कुशील बनना चाहता है। जो अज्ञानी स्त्रियों में आसक्त है और उनकी प्राप्ति के लिये परिग्रह का सञ्चय करता है वह पाप की वृद्धि करता है। __(8) जो पुरुप प्राणियों की हिंसा करता हुआ उनके साथ वैर वाँधता है वह पाप की वृद्धि करता है तथा मर कर नरक आदि दुःखों को प्राप्त करता है। इसलिए विद्वान् मुनि धर्म पर विचार कर सब अनर्थों से रहित होता हुआ संयम का पालन करे।
(१०) साधु इस संसार में चिरकाल तक जीने की इच्छा से द्रव्य का उपार्जन न करे । स्त्री पुत्र आदि में अनासक्त होता हुआ संयप में प्रवृत्ति करे । प्रत्येक बात विचार कर कहे, शन्दादि विपयों में श्रासक्ति न रखे तथा हिंसा युक्त कथा न करे।
(११) साधु प्राधाकर्मी आहार की इच्छा न करे तथा प्राधाकर्मी श्राहार की इच्छा करने वाले के साथ अधिक परिचय न रक्खे । कर्मों की निर्जरा के लिए शरीर को सुखा डाले। शरीर की परवाह न करते हुए शोक रहित होकर संयम का पालन करे।
(१२) साधु एकत्व की भावना करे, क्योंकि एकत्व भावना से ही निःसङ्गपना प्राप्त होता है। एकत्व की भावना ही मोक्ष है। जो इस भावना से युक्त होकर क्रोध का त्याग करता है, सत्यभाषण करता है तथा तप करता है वही पुरुष सब से श्रेष्ठ है।